________________ 174 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कर 165. ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए) कामकथा कामोत्तेजक कथा न करे, वासनापर्ण दृष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को न देखे. परस्पर कामक भावोंसंकेतों का प्रसारण न करे. उन पर ममत्वन करे. शरीर की साज-सज्जा से दर (अथवा उनकी वैयाबत्य न करे). वचनगप्ति का पालक वाणी से कामक प्रालाप न करे-वाणी का संयम रखे, मन को भी कामवासना की ओर जाते हए नियंत्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे।। . इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक प्रकार से बसा ले जीवन में उतार ले। विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्नरूप स्त्री-संग का वर्जन तथा विषयों की उग्रता कम करने के लिए तप आदि का निर्देश है। 'स्त्री' एक हौवा है उनके लिए, जिनका मन स्वयं के काबू में नहीं है, जो दान्त, शान्त, एवं तत्वदर्शी नहीं हैं, उन्हीं को स्त्रीजन से भय हो सकता है, अतः साधक पहले यही चिन्तन करे-यह स्त्री-जन मेरा-मेरी ब्रह्मचर्यसाधना का क्या बिगाड़ सकती हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं। एस से परमारामों--पद में 'एस' शब्द से 'स्त्री-जन का ग्रहण न करके 'संयम' ही उसके लिए परम पाराम (सुखरूप) है'---यह अर्थ ग्रहण करना अधिक संगत लगता है। यह निष्कर्ष इसी में से फलित होता है कि मैं तो संयम से सहज प्रात्मसुख में हूँ, यह स्त्री-जन मुझे क्या सुख देगा? यह विषय-सुखों में डुबाकर मुझे असंयमजन्य दुःख-परम्परा में ही डालेगा।' कुन्दकुन्दाचार्य की यह उक्ति ठीक इसी बात पर घटित होती है-- ___ "तिमिरहरा जा विट्ठी, जणस्स दीवेग गस्थि कादम्यं / तप सोक्खं सयमावा विसया कि सत्य कुवंति // "2 --जिसकी दृष्टि ही अन्धकार का हरण करने वाली है, उसे दीपक से कोई काम नहीं होता / आत्मा स्वयं सुखरूप है, फिर उसके लिए विषय किस काम के ? "णिम्बलासए' के दो अर्थ फलित होते हैं--(१) निर्बल-निःसार अन्त-प्रान्तादि पाहार करने वाला और (2) शरीर से निर्बल (कमजोर-कृश) होकर अाहार करे दोनों अर्थों में कार्य-कारण भाव है। पुष्टि कर शक्ति-युक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली बनता है। सशक्त शरीर में कामोद्रक की सम्भावना रहती है। शक्तिहीन भोजन करने से शरीरबल घट जाता है, कामोद्रेक की सम्भावना भी कम हो जाती है और शक्तिहीन शरीर होता हैशक्तिहीन-नि:सार, अल्प एवं तुच्छ भोजन करने से / वास्तव में दोनों उपायों का उद्देश्य कामवासना को शान्त करना है। 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 198 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 198 / 2. प्रवचनसार गाथा 67 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org