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________________ नवम अध्ययन : सूत्र 643-44 306 प्रस्तुत में उदकप्रसूत-कंदादि तक 2+11 = 13 विकल्प होते हैं, शय्यैषणा-अध्ययन के अनुसार आगे और भी विकल्प हो सकते हैं।' निवोधिका में अकरणीय कार्य 643. जे तत्थ दुवग्गा वा तिवग्गा वा चउवग्गा वा पंचवग्गा वा अभिसंधारेति णिसीहियं गमणाए ते णो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगेज्ज वा, विलिंगेज्ज वा, चुंबेज्ज वा, दंतेहि वा नहेहि वा अच्छिदेज्ज वा। 643. यदि स्वाध्यायभूमि में दो-दो, तीन-तीन, चार-चार या पांच-पांच के समूह में एकत्रित होकर साधु जाना चाहते हों तो वे वहां जाकर एक दूसरे के शरीर का परस्पर आलिंगन न करें, न ही विविध प्रकार से एक दसरे से चिपटें, न वे परस्पर चम्बन करें, न दांतों और नखों से एक दुसरे का छेदन करें। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में निषीधिका में न करने योग्य परस्पर आलिंगन, चुम्बन आदि कामविकारोत्पादक मोहवर्द्धक प्रवृत्तियों का निषेध किया है। ये निषिद्ध प्रवृत्तियाँ और भी अनेकप्रकार की हो सकती है, जैसे निषोधिका में कलह, कोलाहल, तथा पचन-पाचनादि अन्य सावध प्रवृत्तियाँ करना इत्यादि / 644. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सबटुहि' सहिए समिए सदा जएज्जा, सेयमिणं मण्णेज्जासि त्ति बेमि / 644. यही (निषीधिका के उपयोग का विवेक ही) उस भिक्षु या भिक्षुणी के साधु जीवन का आचार सर्वस्व है। जिसके लिए वह सभी प्रयोजनों और ज्ञानादि आचारों से तथा समितियों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे और इसी को अपने लिए श्रेयस्कर माने। -ऐसा मैं कहता हूं। // नवम अध्ययन, द्वितीय सप्तिका समाप्त // 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक, 360 / 2. इनके बदले पाठान्तर है-'चउग्गा वा पंचमा वा'। 3. सर्वार्थे का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में ~-अशेषप्रयोजनरामुष्मिकः सहितः समन्वितः।"-पारलौकिक समस्त प्रयोजनों से युक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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