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________________ 308 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध निषेध एवं विधान किया गया है। इसमें शय्या-अध्ययन (द्वितीय) के सू०.४१२ से 417 तक के समस्त सूत्रों का वर्णन समुच्चय-रूप में कर दिया गया। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने स्वयं कहा है-'एवं सेज्जागमेण तव्वं जाव उदयपसूयाणि / ' प्रस्तुत सूत्र द्वय में शय्या-अध्ययन के 412 सूत्र का मन्तव्य दे दिया है। अब 413 सू० से 417 तक के सूत्रों का संक्षेप में निषीधिका संगत रूप इस प्रकार होगा'-- (1) निर्ग्रन्थ को देने की प्रतिज्ञा से एक सार्मिक साधु के निमित्त से आरम्भपूर्वक बनायी हुई, क्रीत, पामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत निषीधिका, और वह भी पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, यावत् आसेवित हो या अनासेवित, तो ऐसी निषीधिका का उपयोग न करे। (2) इसी प्रकार की निषीधिका बहुत-से सार्मिकों के उद्देश्य से निर्मित हो, तथैव एक सार्मिणी या बहुत-सी सार्मिणियों के उद्देश्य से निर्मित तथा प्रकार की हो तो उसका भी उपयोग न करे। (3) इसीप्रकार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिनकर बनाई हुई तथाप्रकार की निषीधिका हो तो उसका भी उपयोग न करे। (4) बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि के निमित्त से निर्मित, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तोउसका उपयोग न करे / (5) वैसी निषोधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे / (6) गृहस्थ द्वारा काष्ठादि द्वारा संस्कृत यावत् संप्रधूपित (धूप दी हुई) तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित निषीधिका हो, तो उसका उपयोग न करे। (7) वैसी निषीधिका यदि पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे। (8) गृहस्थ द्वारा साधु के उद्देश्य से उसके छोटे द्वार बड़े बनवाए गए हों, बड़े द्वार छोटे, यावत् उसमें से भारी सामान निकाल कर खाली किया गया हो, ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करे। (9) यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे / (10) वहाँ जल में उत्पन्न कंद आदि यावत् हरी आदि साधु के निमित्त उखाड़ कर साफ करके गृहस्थ निकाले तथा ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करें। (11) यदि वैसी निषीधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गई हो तो उसका उपयोग कर सकता है। वास्तव में निषीधिका की अन्वेषणा तभी की जाती है, जब आवासस्थान संकीर्ण छोटा, खराब या स्वाध्याय-ध्यान के योग्य न हो। 1. आचारांग सुत्र 412 से 417 तक की वत्ति पत्रांक 360 पर से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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