________________ उच्चार-प्रस्रवणसप्तक: दशम अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र (द्वि० श्र त०) के दसवें अध्ययन का नाम उच्चार-प्रस्रवण सप्तक है। र उच्चार और प्रस्रवण ये दोनों शारीरिक संज्ञाएं (क्रियाएं) है, इनका विसर्जन करना अनिवार्य है / अगर हाजत होने पर इनका विसर्जन न किया जाए तो अनेक भयंकर व्याधियां उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।' र मल और मूत्र दोनों दुर्गन्धयुक्त चीजें हैं, इन्हें जहाँ-तहाँ डालने से जनता के स्वास्थ्य को हानि पहुंचेगी, जीव-जन्तुओं की विराधना होगी, लोगों को साधुओं के प्रति घृणा होगी। इसलिए मल मूत्र विसर्जन या परिष्ठापन कहाँ, कैसे और किसविधि से किया जाए, कहाँ और कैसे न किया जाए ? इन सब बातों का सम्यक् विवेक साधु को होना चाहिए / यह विवेक नहीं रखा जाएगा तो जनता के स्वास्थ्य की हानि, कष्ट एवं व्यथा होगी, अन्य प्राणियों को पीड़ा एवं जीवहिंसा होगी। तथा साधुओं के प्रति अवज्ञा की भावना पैदा होगी, इनसे बचने के लिए ज्ञानी एवं अनुभवी अध्यात्मपुरुषों ने इस अध्ययन की योजना र 'उच्चार' का शाब्दिक अर्थ है-शरीर से जो प्रबल वेग के साथ च्युत होता-निकलता है / मल या विष्ठा का नाम उच्चार है / प्रस्रवण का शब्दार्थ है-प्रकर्षरूप से जो शरीर से बहता है, झरता है / प्रस्रवण (पेशाब) मूत्र या लघु शंका को कहते हैं। 5 इन दोनों का कहाँ और कैसे विसर्जन या परिष्ठापन करना चाहिए? इसका किस प्रकार आचरण करने वाले षड्जीवनिकाय-रक्षक साधु की शुद्धि होती हैं, महाब्रतों एवं समितियों में अतिचार-दोष नहीं लगता, उसका विधि निषेध-सात मुख्य विवेक सूत्रों द्वारा बताने के कारण इस अध्ययन का नाम रखा गया है—उच्चार-प्रस्रवणसप्तक ! 4 इस अध्ययन में उन सभी विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया गया है, जो साधु के मल___ मूत्र-विसर्जन एवं परिष्ठापन से सम्बन्धित हैं। 1. (क) दशव हारि० टीका 'वच्च मुत्त न धारए'-जओ मुत्तनिरोहे चक्खुबाधाओ भवति, बच्चनिरोहे जीविओपघाओ, असोहणा य आविराहणा।' -अ०८/गा०२६ (ख) मुत्तनिरोहे चक्खु वच्चनिरोहे य जीवियं चयति / उड्डनिरोहे कोढ, सुक्कनिरोहे भवे अपुमं // -~ओघनियुक्ति गा०१५७ 2. जं. सा० का वृहत् इतिहास (पं० बेचरदासजी) भा० १--अंगनन्थो का अन्तरंग परिचय, पृ० 116 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 / (ख) आचारांग नियुक्ति गा० 321, 322 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org