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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 371-74 और उपलब्धियों की बहुत ही संक्षिप्त झाँकी दी गई है। चूर्णिकार के समक्ष इस सूत्र का पाठ विस्तृत रूप में उपलब्ध रहा होगा जिसके अनुसार उन्होंने उसकी चूणि प्रस्तुत की है। हम यहाँ चूणि सम्मत पाठ संक्षेप में दे रहे हैं छिन्नसोति, कंसपादीय मक्कतोये, संखो इव निरजणे, जीवो इव अपडिहयगई, गगणमिव णिरालंबणे, वायुरिय अपडिबसे सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्त व निरुवलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए, खरगविसाणं व एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारंडपक्खी इव अप्पमत्त, कुंजरो इव सोंडोरे..... जच्चकणगं व जायसवे, वसुंधरा इव सब्वफासविसहे ........" "नत्थिणं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधो भवति / से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तंजहादब्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दम्वओ णं सचित्ताचित मीसिएस दम्बेसु. खेसओ णं गामे वा नगरे वा अरण्णे वा। कालओ गं समए वा आबलियाए बा" भावओ गं कोहे माणे वा......"मिच्छावंसणसल्ले वा।"१ उनके समस्त स्रोत (आस्रब) नष्ट हो गये। कांस्य-पात्र की तरह निर्लेप हुए। शंख की रह रंग (राम-द्वेष रूप रंग) से रहित / जीव की तरह अप्रतिहतगति, गमन की तरह आलम्बन (पर-सहाय) रहित, वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी, शरद् ऋतु के पानी की तरह जिनका हृदय निर्मल था, कमल पत्र की तरह निलंग, कूर्म (कछुआ) की तरह गुप्तेन्द्रिय, वराह (गेंडा) के सींग की तरह एकाकी पक्षी की भांति सर्वथा उन्मुक्तचारी, भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त, कुंजर (हस्ती) की तरह शूरवीर, स्वर्ण की भांति कान्तिमान, पृथ्वी की भाँति क्षमाशील, .."उन भगवान को कहीं पर भी प्रतिबन्ध नहीं था। प्रतिबंध चार प्रकार का होता है-जैसे, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से / द्रव्य से—सचित्त, अचित्त मिश्रद्रव्यों में, क्षेत्र से-ग्राम, नगर, अरण्य आदि काल से--समय आवलिका आदि| भाव से-क्रोध, मान आदि मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त ... इसीप्रकार का पाठ कल्पसूत्र में है, तथा स्थानांग के 8 वें स्थान में भी इसी आशय का विस्तृत पाठ मिलता है। सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण", औपपातिक' एवं राजप्रश्नीयसूत्र में भी सामान्य अनगारके सम्बन्ध में पूर्वोक्त उपमावाले पाठ मिलते हैं। निष्कर्ष यह है कि भगवान् में वे सब गुण विद्यमान थे, जो एक आदर्श अनगार में होने चाहिए / भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति ___772. ततो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एलेणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वोतिक्कता, तेरस मस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे उत्थे पक्खे वेसाहसुद्ध तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुम्वतेणं दिवसेणं विजएणं महत्तणं हत्थुत्तराहि नक्खत्तणं जोगोवगतेणं पाईणगामिणोए छायाए वियत्ताए पोरुसोए जंभिय 1. आचारांग चूणि म० पा० टि• पृ० 274, 2. कल्पसूत्र सू० 117 से 121, 3. से जहा नामए अणगारा भगवंतो अप्पाणं भावेमाणा विहरति / - सूत्रकृ० 21 4. ...संजते इरियासमिते छिन्नगन्थे "मुक्कतोए चरेज्ज धम्म / ----प्रश्नव्या०५ संवरद्वार 5. समणस्स णं'"महावीरस्स अंतेवासी कत्थइ पडिबंधे भवेति !"एव तेसि ण भवइ। ----औपपातिक सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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