________________ 366 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध गामस्स गरस्स बहिया णदीए उज्जुवालियाए उत्तरे कूले सामागस्स गाहावतिस्स कट्ठकरणसि वियावत्तस्स चेतियस्स उत्तरपुरथिमे दिसाभागे सालरुक्खस्स अदूरयामते उक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आतावेदाणस छठेणं भतेणं अपाणएणं उड्ढं जाणु अहो सिरस धम्मज्झाणोवगतस्स झाणकोट्ठोवगतम्स सुक्कज्झातरियाए वट्टमाणस्स व्वाणे कसिणे पडिपुण्णे अवाहते णिरावरणे अणते अणु तरे केवलवरणाण-दसणे समुप्पण। 773. से भगवं अरहा जिणे जाणए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी सदेव-मणुया-ऽसुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणतो, तंजहा-आगती गती ठिती चयणं उववायं भुत्त पीयं कडं पडिसेवितं आविकम्म रहोकम्म लवियं कथितं मणोमाणसियं सव्वलोए सबजीवाणं सवभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं चाते विहरति / 774. ज णं दिवसं समणस्स भगवतो महावीरस्स व्वाण कसिणे जाव समुप्पन्न तं गं दिवसं भवणवइ-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिदेवेहि य देवोहि य ओवयंतेहि य जाव उपिजलगभूते यावि होत्था। 772 उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार से विचरण करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास और चौथे पक्ष में अर्थात् वैशाख सुदी में, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, सुव्रत नामक दिवस में, विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर- दिन के दूसरे (पिछले) पहर में जृम्भकग्नाम नामक नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाक गृहपति के काष्ठकरण नामक क्षेत्र, में वैयावृत्य नामक चैत्य (उद्यान) के ईशानकोण में शालवृक्ष मे न अति दूर, न अति निकट, उत्कटक (उकडू) होकर गोदोहासन में सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल षष्ठभक्त (प्रत्याख्यान) तप से युक्त, ऊपर घुटने और नीचा सिर करके धर्म-ध्यान में युक्त, ध्यान कोष्ठ में प्रविष्ट हुए भगवान् जब शुक्लध्यानान्तरिका में अर्थात् लगातार शुक्लध्यान के मध्य में प्रवर्तमान थे, तभी उन्हें अज्ञान दुःख से निवृत्ति दिलाने वाला, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण अनन्त अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए। 773. वे अब भगवान, अर्हत्, जिन, ज्ञायक, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हो गए। अब वे देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समस्त लोक के पर्यायों को जानने लगे। जैसे कि जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, उनके भुक्त (खाए हुए) और पीत (पीए हुए) सभी पदार्थों को, तथा उनके द्वारा कृत (किये हुए), प्रतिसेवित, प्रकट एवं गुप्त सभी कर्मों (कामों) को, तथा उनके द्वारा बोले हुए, कहे हुए, तथा मन के भावों को जानते, देखते थे। वे सम्पूर्ण 1. 'ओवयंतेहि' के बदले ‘उवतंतेहि', 'उवयंतेहि' पाठान्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org