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________________ 364 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ___ 770. इस प्रकार का अभिग्रह धारण करने के पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं काया के प्रति ममत्व का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर दिन का मुहूर्त (48 मिनट) शेष रहते कर्मार (कुमार) ग्राम पहुंच गए। उसके पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं देहाध्यास का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर अनुत्तर (अनुषम) वसति के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि (प्रसन्नता), समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान, तथा अनुपम क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति-मार्ग---ज्ञान-दर्शनचारित्र-के मेवन से युक्त हो कर आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे। 771. इस प्रकार विहार करते हुए त्यागो श्रमण भगवान महावीर को दिव्य, मानवीय और तिर्य चसम्बन्धी जो कोई उपसर्ग प्राप्त होते, वे उन सब उपसर्गों के आने पर उन्हें अकलुषित (निमल), अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन-काया की त्रिविध प्रकार की गप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार से समभावपूर्वक सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णभाव धारण करते तथा शान्ति और धैर्य से झेलते थे। विवेचन—आत्मभाव में रमणपूर्वक विहार एवं उपसर्ग सहन --प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान् महावीर तथा उनकी साधना एवं सहिष्णुता की झाँकी प्रस्तुत की गई है / आत्मभावों में बिहार करने का उनका मुख्य लक्ष्य था, आत्मभाव-रमण को केन्द्र में रखकर ही उनका विहार, आहार. तप, संयम, उपकरण, संवर, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, धर्मक्रिया, कायोत्सर्ग तथा रत्नत्रय की साधना चलती थी। इसी कारण वह तेजस्वी, प्राणवान एवं अनुत्तर हो सकी थी। आत्मभावों में रमण की साधना के कारण ही वे देवकृत, मानवकृत या तियञ्चकृत किसी भी उपसर्ग का सामना करने में व्यथित, राग-द्वेष से कलुषित या दीनमनस्क नहीं होते थे। मन-वचन-काया, तीनों योगों का संगोपन करके रखते थे। वे उन उपसर्गों को समभाव से सहते, उपसर्गकर्ताओं को क्षमा कर देते एवं तितिक्षाभाव धारण कर लेते। प्रत्येक उपसर्ग को धैर्य एवं शाति से झेल लेते थे।" स्थानांग सुत्र के स्थान नौवें में इसी से मिलता-जुलता उपसर्ग सहन का पाठ मिलता है। चूणि के आधार से विस्तृत पाठ का अनुमान प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान महावीर की साधना 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण प.० 273 2. (क) "तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाइं दुबालसवासाई.."बोसठ्ठकाए चियत्त देहे जे केड उवसग्गा... .."सम्म सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिरसइ अहियासिस्सइ।" --स्थान०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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