________________ अष्टम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 2.4.206 करो।" उन सब दुःखरूप स्पर्शो (कष्टों) के प्रा पड़ने पर धीर (अक्षुब्ध) रहकर मुनि उन्हें (समभाव से) सहन करे। अथवा वह प्रास्मगुप्त (आत्मरक्षक) मुनि अपने प्राचार-गोचर (पिण्ड-विशुद्धि आदि प्राचार) को क्रमशः सम्यक् प्रेक्षा करके (पहले अशनादि बनाने वाले पुरुष के सम्बन्ध में भलीभाँति ऊहापोह करके (यदि वह मध्यस्थ या प्रकृत्तिभद्र लगे सो) उसके समक्ष प्रपना अनुपम आचार-गोचर (साध्वाचार) कहे-बताए। अगर वह व्यक्ति दुराग्रहीं और प्रतिकूल हो, या स्वयं में उसे समझाने की शक्ति न हो तो बचन का. संगोपन (मौन) करके रहे / बुद्धों तीर्षकरों ने इसका प्रतिपादन किया। . .... . . . विवेचन-इस उद्देशक में साधु के लिए अनाचरणीय या अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार कुछ अकरणीय बातों से विमुक्त होने का विभिन्न पहलुओं से निर्देश किया है। से भिक्यू परक्कमेज्ज वा–यहाँ वृत्तिकार ने विमोक्ष के योग्य भिक्षु की विशेषताएँ बताई हैं-जिसने यावज्जीवन सामायिक की प्रतिज्ञा ली है, पंचमहाव्रतों का भार ग्रहण किया है, समस्त सावध कार्यों का त्याग किया है, और जो भिक्षाजीबी है, वह भिक्षा के लिए या अन्य किसी आवश्यक कार्य से परिक्रमण---विचरण कर रहा है। यहाँ परिक्रमण का सामान्यतया अर्थ गमनागमन करना होता है।' __ सुसाण सि-प्रस्तुत सूत्र-पंक्ति में श्मशान में लेटना, करवट बदलना या शयन करना प्रतिमाधारक या जिनकल्पी मुनि के लिए ही कल्पनीय है; स्थविरकल्पी के लिए तो श्मशान में ठहरना, सोना आदि कल्पनीय नहीं है, क्योंकि वहाँ किसी प्रकार के प्रमाद या स्खलन से व्यन्तर आदि देवों के उपद्रव की सम्भावना बनी रहती है तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रात्मभावना होने पर भी जिनकल्पी के लिए सामान्य स्थिति में श्मशान में निवास करने की प्रज्ञा नहीं है। प्रतिमाधारी मुनि के लिए यह नियम है कि जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं उसे ठहर जाना चाहिए। अत: जिनकल्पी प्रंतिकाधारक की अपेक्षा से ही श्मशान-निवास का उल्लेख प्रतीत होता है। इसीलिए चणि में व्याख्या की गई है---श्मशान के पास खड़ा होता है, शून्यगृह के निकट या वृक्ष के नीचे अथवा पर्वतीय गुफा में ठहरता है।' वर्तमान में सामान्यतया स्थविरकल्पी गच्छवासी साधु बस्ती में किसी न किसी उपाश्रय या मकान में ठहरता है। हाँ, विहार कर रहा हो, उस समय कई बार उसे स्थान न मिलने या सूर्यास्त हो जाने के कारण शून्यगह में, वृक्ष के नीचे या जंगल में किसी स्थान में ठहरना होता है। प्राचीनकाल में तो गांव के बाहर किसी बगीचे ग्रादि में ठहरने का प्राम रिवाज था। साधु कहीं भी ठहरा हो, वह भिक्षा के लिए स्वयं गृहस्थों के घरों में जाता है और 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 270 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 270 / 3. चूमि में व्याख्या मिलती है --'सुसाणस्स पासे वाति अभासे वा सुष्णघरे वा ठितो होग्न, पलमूले वा, जारिसो रक्खमूलो णिसोहे भणितो, गिरि गुहाए वा।' माचा० चूणि, प्राचा० मूलपाठ पृ. 72 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org