________________ 252 आचारांग-प्रथम श्रुतस्कन्ध या पादपोंछन बना रहे हो, या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना लाकर अथवा अपने घर से यहाँ लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय बनवाना चाहते हो। हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं (इस प्रकार के सावध कार्य से सर्वथा) विरत हो चुका हूँ। यह (तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत बात मेरे लिए) अकरणीय होने से, (मैं स्वीकार नहीं कर सकता)। 205. वह भिक्षु (कहीं किसी कार्यवश) जा रहा है, श्मशान, शून्यगृह, गुफा या वृक्ष के नीचे या कुम्भार की शाला में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने प्रात्मगत भावों को प्रकट किये बिना (मैं साधु को अवश्य ही दान दूंगा, इस अभिप्राय को मन में संजोए हुए) प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक प्रशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लाकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे के अधिकार की वस्तु उनकी बिना अनुमति के लाकर, अथवा घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण या जीर्णोद्वार कराता है, वह (यह सब) उस भिक्षु के उपभोग के या निवास के लिए (करता है)। (साधु के लिए किए गए) उस (प्रारम्भ) को वह भिक्षु अपनी सद्बुद्धि से, दूसरों (अतिशयज्ञानियों) के उपदेश से या तीर्थकरों की वाणी से अथवा अन्य किसी उसके परिजनादि से सुनकर यह जान जाए कि यह गृहपति मेरे लिए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों के समारम्भ से अशनादि या वस्त्रादि बनवाकर या मेरे निमित्त मोल लेकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसके स्वामी से अनुमति प्राप्त किए बिना लाकर अथवा अपने धन से उपाश्रय बनवा रहा है, भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना (छान-बीन) करके, पागम में कथित आदेश से या पूरी तरह से जानकर उस गृहस्थ को साफ-साफ बता दे कि ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं हैं; (इसलिए मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता) / इस प्रकार मैं कहता हूँ। 206. भिक्षु से पूछकर (सम्मति लेकर) या बिना पूछे ही (मैं अवश्य दे दूंगा, इस अभिप्राय से) किसी गृहस्थ द्वारा (अन्धभक्तिवश) बहुत धन खर्च करके बनाये हुए ये (आहारादि पदार्थ) भिक्षु के समक्ष भेंट के रूप में लाकर रख देने पर (जब मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; वह सम्पन्न गृहस्थ क्रोधादेश में आकर स्वयं उस भिक्षु को मारता है, अथवा अपने नौकरों को प्रादेश देता है कि इस (–व्यर्थ ही मेरा धन व्यय कराने वाले साधु) को डंडे आदि से पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर प्रादि अंग काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकायो, इसके वस्त्रादि छीन लो या इसे नखों से नोंच डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबर्दस्ती करो अथवा जल्दी ही इसे मार डालो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org