________________ . आधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पाहारादि आवश्यक पदार्थ अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार प्राप्त होने पर ही लेता है। कोई गृहस्थ भक्तिवश या किसी लौकिक स्वार्थवश उसके लिए बनवाकर, खरीदकर, किसी से छीनकर, चुराकर या अपने घर से सामने लाकर दे तो उस वस्तु का ग्रहण करना उसकी प्राचार-मर्यादा के विपरीत है / वह ऐसी वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता, जिसमें उसके निमित्त हिसादि प्रारम्भ हुआ हो। अगर ऐसी विवशता की परिस्थिति प्रा जाए और कोई भावुक गृहस्थ उपयुक्त प्रकार से उसे अाहारादि लाकर देने का अति प्राग्रह करने लगे तो उसे उस भावकहृदय हितैषी भक्त को धर्म मे, प्रेम से, शान्ति से वसा पाहारादि न देने के लिए समझा देना चाहिए, साथ ही अपनी कल्पमर्यादाएँ भी उसे समझाना चाहिए / यह अकल्पनीय विमोक्ष की विधि है।' अकल्पनीय स्थितियां और विमोक्ष के उपाय--सूत्र 204 से लेकर 206 तक में शास्त्रकार ने भिक्षु के समक्ष आने वाली तीन अकल्पनीय परिस्थितियाँ और साथ ही उनसे मुक्त होने या उन परिस्थितियों में प्रकरणीय-अनाचरणीय कार्यों से अलग रहने या छुटकारा पाने के उपाय भी बताए हैं (1) भिक्ष को किसी प्रकार के संकट में पड़ा या कठोर कष्ट पाता देखकर किसी भावक भक्त द्वारा उसके समक्ष पाहारादि बनवा देने, मोल लाने, छीनकर तथा अन्य किसी भी प्रकार से सम्मुख लाकर देने तथा उपाश्रय बनवा देने का प्रस्ताव / (2) भिक्षु को कहे-सुने बिना अपने मन से ही भक्तिवश पाहारादि बनवाकर या उपयुक्त प्रकारों में से किसी भी प्रकार से लाकर देने लगना तथा उपाश्रय बनवाने लगना और (3) उन आहारादि तथा उपाश्रय को प्रारम्भ-समारम्भ जनित एवं अकल्पनीय जानकर भिक्षु जब उन्हें किसी स्थिति में अपनाने से साफ इन्कार कर देता है तो उस दाता की ओर से क्रुद्ध होकर उस भिक्षु को तरह-तरह से यातनाएँ दिया जाना। . प्रथम अकल्पनीय ग्रहण की स्थिति से विमुक्त होने के उपाय--प्रेम से अस्वीकार करे और 'कल्पमर्यादा' समझाए / दूसरी स्थिति से विमुक्त होने का उपाय-किसी तरह से जानसुनकर उस पाहारादि को ग्रहण एवं सेवन करना अस्वीकार करे और तीसरी स्थिति आ पड़ने पर साधु धैर्य और शान्ति से समभावपूर्वक उस परीषह या उपसर्ग को सहन करे। इस प्रकार उस गृहस्थ को अनुकूल देखे तो साधु के अनुपम आचार के विषय में बताये, प्रतिकूल हो तो मौन रहे / इस प्रकार अकल्पनीय-विमोक्ष की सुन्दर झांकी शास्त्रकार ने प्रस्तुत की है। एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि साधु के द्वारा उक्त अकल्पनीय पदार्थों को अस्वीकार करने या उस भावुकहृदय गृहस्थ को समझाने का तरीका भी शान्ति, धैर्य एवं प्रेमपूर्ण होना चाहिए / वह दाता गृहस्थ को द्वेषी, वैरी या विद्रोही न समझे, किन्तु भद्रमनस्क और 1. आचारांग आचार्य श्री प्रात्माराम जी म० कृत टीका के आधार पर पृ० 559 / 2. आचासंग टीका पत्रांक 270-271-272 के आधार पर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org