________________ 164 आचारांग सत्र- द्वितीय श्र तस्कन्ध से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लोओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय 2 उत्तरेज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया' उवागच्छंति ते पाणी जाएज्जा, 2 [सा] ततो संजयामेव अवलंबिय 2 उत्तरेज्जा / ततो संजयामेव गामाणु गामं दूइज्जेज्जा। 500. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काणि वा परचक्काणि वा सेणं वा विरूवरूवं संणिविट्ठ पेहाए सति परक्कमे संजयामेव परवकमेज्जा], णो उज्जुयं गच्छेज्जा। 501. से णं से परो सेणागओ वदेज्जा-आउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिचारियं करेइ, से गं बाहाए गहाय आगसह / से णं परो बाहाहि गहाय आगसेज्जा, तं णो सुमणे सिया जाव समाहीए। ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 402. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइजमाणे, अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! केवतिए एस गामे वा जाव रायहाणी वा, केवतिया एत्थ आसा हत्यी गापिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ? से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजवसे ? से अप्पभत्ते अपुदए अप्पजणे अप्पजवसे ? एतप्पगाराणि पसिणाणि पुट्ठो गो आइक्खेज्जा, एयप्पगाराणि पसिणाणि णो पुच्छेज्जा। 468. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी गीली मिट्टी एवं कीचड़ से भरे हुए अपने पैरों से हरितकाय (हरे घास आदि) का बार-बार छेदन करके तथा हरे पत्तों को बहुत मोड़-तोड़ कर या दबा कर एवं उन्हें चीर-चीर कर मसलता हुआ मिट्टी न उतारे और न हरितकाय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में इस अभिप्राय से जाए कि 'पैरों पर लगी हुई इस कीचड़ और गीली मिट्टी को यह हरियाली अपने आप हटा देगी'; ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। वह पहले ही हरियाली से रहित मार्ग का प्रतिलेखन करे (देखे), और तब उसी मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। 1. पाडिपहिया के स्थान पर पाठान्तर है 'पाडिवाहिया' / चुणिकार इस पंक्ति का आशय यो व्यक्त करते हैं-'जिणकप्पितो पाडिपहियहत्थं जाइत्तु उत्तरति, थेरा रुक्खादीणि वि।' 'जिनकरिषक मुनि प्रातिपथिक (राहगीर) से हाथ की याचना करके उसका हाथ पकड़ कर उतरते-चलते हैं। स्थविरकल्पी मुनि तो वृक्ष आदि का सहारा लेकर भी उतरते चलते हैं। 2, 'संणिविट्ठ' के स्थान पर पाठान्तर है-'संणिसठ्ठ, सणिठें।' 3. ....... णो पुच्छेज्जा' के आगे किसी-किसी प्रति में ऐसा पाठ मिलता है- 'एतप्पगाराणि पसिणाणि पद्धो वा अपद्रो वा णो वागरेज्जा।'-अर्थात---उन गुप्तचरों द्वारा इस प्रकार के प्रश्न पूछने पर या न पूछने पर साधु उत्तर न दे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org