________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 467-502 165 __ 466. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में यदि टेकरे (उन्नत भू भाग) हों, खाइयाँ, या नगर के चारों ओर नहरें हो, किले हों, या नगर के मुख्य द्वार हों, अर्गलाएँ (आगल) हों, आगल दिये जानेवाले स्थान (अर्गलापाशक हों, गड्ढे हों, गुफाएं हों या भूगर्भ-मार्ग हों तो अन्य मार्ग के होने पर उसी अन्य मार्ग से यतनापूर्वक गमन करे, लेकिन ऐसे सीधे- किन्तु विषम मार्ग से गमन न करे / केवली भगवान् कहते हैं हैं-यह मार्ग (निरापद न होने से) कम-बन्ध का कारण है। ऐसे विषममार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पैर आदि फिसल सकता है. वह गिर सकता है। [पैर आदि के फिसलने या गिर पड़ने से शरीर के किसी अंग-उपांग को चोट लग सकती है, वहां जो भी सजीव हों तो, उनकी भी विराधना हो सकती है, कदाचित् सचित्त वृक्ष आदि का अवलम्बन ले तो भी अनुचित है। यदि स्थविरकल्पी साधु को कारणवश उसी मार्ग से जाना पड़े और कदाचित् उसका पैर आदि फिसलने लगे या वह गिरने लगे तो वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ (पत्तों का समूह या फलों का गुच्छा), झाड़ियां, लताएं (यष्टि के आकार की बेलें), बेलें, तृण अथवा गहन (वृक्षों के कोटर या वृक्षलताओं का झुड) आदि हो, उनका हरितकाय को सहारा ले ले कर चले या उतरे अथवा वहाँ (सामने से) जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ (हाथ का सहारा) मांगे (याचना करे) उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़ कर यतनापूर्वक चले या उतरे / इस प्रकार साधु या साध्वी को संयमपूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। 500. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों, मार्ग में यदि जौ, गेहूं आदि धान्यों के ढेर हों, बेलगाड़ियां या रथ पड़े हों, स्वदेश-शासक या परदेश-शासक की सेना के नाना प्रकार के पड़ाव (छावनी के रूप में) पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दूसरा (निरापद) मार्ग हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु उस सीधे, (किन्तु दोषापत्तियुक्त) मार्ग से न जाए। 501. [यदि साधु सेना के पड़ाव वाले मार्ग से जाएगा, तो सम्भव है, उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से कहे-"आयुष्मान् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है, अतः इस की बाहें पकड़ कर खींचो / अथवा उसे घसीटो।" इस पर वह सैनिक साधु को बाहें पकड़ कर खींचने या घसीटने लगे, उस समय साधु को अपने मन में न हर्षित होना चाहिए, न रुष्ट; बल्कि उसे समभाव एवं समाधिपूर्वक सह लेना चाहिए। इस प्रकार उसे यतनापूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते रहना चाहिए। 502. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में सामने से आते हुए पथिक मिलें और वे साध से यों पूछे-"आयुष्मान् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है ? यहाँ पर कितने घोड़े, हाथी तथा भिखारी है, कितने मनुष्य निवास करते हैं ? क्या इस गांव यावत् राजधानी में प्रचुर आहार, पानो, मनुष्य एवं धान्य हैं, अथवा थोड़े ही आहार, पानी मनुष्य एवं धान्य है ? इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org