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________________ अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 200 243 सार्मिक समनोज्ञ को ही पाहारादि ले-दे सकता है, किन्तु एक प्राचार होने पर भी जो शिथिल प्राचार वाले पार्श्वस्थ, कूशील, अपच्छंद, अपसन्न प्रादि हों, उन्हें मूनि आदरपूर्वक पाहारादि नहीं ले-दे सकता। निशीथसूत्र में इसका स्पष्ट वर्णन मिलता है।' असमनोज्ञ के लिए शास्त्रों में 'अन्यतीथिक' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। 'भो पाएज्जा' आदि तीन निषेधात्मक वाक्यों में प्रयुक्त 'गो' शब्द सर्वधा निषेध अर्थ में है। कदाचित् ऐसा समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधु अत्यन्त रुग्ण, असहाय, अशक्त, ग्लान या संकटग्रस्त या एकाकी आदि हो तो आपवादिक रूप से ऐसे साधु को भी आहारादि दिया-लिया जा सकता है, उसे निमन्त्रित भी किया जा सकता है और उसकी सेवा भी की जा सकती है। बास्तर में तो संसर्ग-जनित भी दोष से बचने के लिए ही ऐसा निषेध किया गया है। मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावना को हृदय से निकाल देने के लिए नहीं। वस्तुतः यह निषेध भिन्न समनोज या मसमनोज्ञ के साथ राग, द्वेष. ईर्ष्या, घृणा, विरोध, वैर, भेदभाव आदि बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है, यह तो सिर्फ अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निष्ठा में शैथिल्य पाने से बचाने के उद्देश्य से है। आगे चलकर तो समाधिमरण की साधना में अपने समनोज्ञ सामिक मुनि से भी सेवा लेने का निषेध किया गया है, वह भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र में दृढ़ता के लिए है। इसी सूत्र 199 की पंक्ति में परं आढायमाणे' पद दिया गया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अत्यन्त प्रादर के साथ नहीं, किन्तु कम आदर के साथ अर्थात् प्रापवादिक स्थिति में समनोज्ञ साधु को आहारादि दिया जा सकता है। इसमें संसर्ग या सम्पर्क बढ़ाने को दृष्टि का निषेध होते हुए, वात्सल्य एवं सेवा-भावना का अवकाश सूचित होता है। शास्त्र में विपरीत (मिथ्या) दृष्टि के साथ संस्तव, प्रतिपरिचय, प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा-प्रदान को रत्नत्रय साधना दूषित करने का कारण बताया गया है। अतः परं पादर' शब्द सम्पर्क-निषेध का वाचक समझना चाहिए। ___ 'धुवं चेतं जाणेज्जा' आदि पाठ सूत्र का उत्तरार्ध है। पूर्वार्ध में आहारादि देने का निषेध करके इस में असमनोज साधुओं से आहारादि लेने का निषेध किया है, यह सर्वथा निषेध है। तथाकथित असमनोज्ञ-अन्यतीर्थिक भिक्षुत्रों की ओर से किस-किस प्रकार से साधु को प्रलोभन, आदरभाव, विश्वास आदि से बहकाया, फुसलाया और फंसाया जाता है, यह इस सूत्रपाठ में बताया गया है। अपरिपक्व साधक बहक जाता है, फिसल जाता है। इसलिए शास्त्रकार ने पहले ही मोर्चे पर उनकी बात का आदर न करने, उपेक्षा-सेवन करने का निर्देश किया है। असमनोज आचार-विचार-विमोक्ष 200 इहमेगेसि आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति / ते इह आरंभट्ठी अगुवयमाणा१. निशीय अध्ययन 2144, तथा निशीथ अध्ययन 1576-77 / 2. प्राचारांग पूज्य आचार्य श्री प्रात्माराम जी म. कृत टीका प्र० 8, उ. 1 के विवेचन पर से पृष्ठ 541 / 3. (क) तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी कृत विवेचन प्र० 7, सू० 18 पृ. 184 / (ख) आवश्यकसूत्र का सम्यक्त्व सूत्र / (ग) प्राचा० शीला टीका पत्रक 265 / 4. प्राचा• शीला० टीका पत्रांक 265 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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