________________ 242 आधारसंग -प्रथम श्रुतः इन्ध निश्चित समझ लो-(हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन (मिलता है)। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन (आचरण) करते हुए भी तुम्हें ( यहाँ अवश्य पाना है)। (यह बात) वह (उपाश्रय में - धर्म-स्थान में) आकर कहता हो या (रास्ते में) चलते हुए कहता हो, अथवा उपाश्रय में पाकर या मार्ग में चलते हुए वह अशन-पान आदि देता हो, उनके लिये निमंत्रित (मनुहार) करता हो, या (किसी प्रकार का )वैयावृत्य करता हो, तो / मुनि उसकी बात का बिल्कुल अनादर (उपेक्षा)करता हुमा(चुप रहे)। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन ---- समनोज-असमनोज- ये दोनों शब्द श्रमण भगवान महावीर के धर्मशासन के साधु-साध्वियों के लिए साधनाकाल में दूसरे के साथ सम्बन्ध रखने व न रखने में विधि-निषेध के लिये प्रयुक्त हैं / समनोज्ञ उसे कहते हैं- जिसका अनुमोदन दर्शन से, वेष से और समाचारी से किया जा सके और असमनोज्ञ उसे कहते हैं -- जिसका अनुमोदन दृष्टि से, वेष से और समाचारी से न किया जा सके / एक जैनश्रमण के लिए दूसरा जैनश्रमण समनोज्ञ होता है, जबकि अन्य धर्म-सम्प्रदायानुयायी साधु असमनोज्ञ / समनोज्ञ के भी मुख्यतया चार विकल्प होते हैं। (1) जिनके दर्शन (श्रद्ध-प्ररूपणा) में थोड़ा-सा अन्तर हो, वेष में जरा-सा अन्तर हो, समाचारी में भी कई बातों में अन्तर हो।। (2) जिनके दर्शन और वेश में अन्तर न हो, परन्तु समाचारी में अन्तर हो / ... (3) जिनके दर्शन, वेष और समाचारी, तीनों में कोई अन्तर न हो किन्तु आहारादि सांभोगिक व्यवहार न हो, और (४)जिनके दर्शन, वेष और समाचारी तीनों में कोई अन्तर न हो तथा जिनके साथ आहारादि सांभोगिक व्यवहार भी हो। इन चारों विकल्पों में पूर्ण समनोज्ञ तो चौथे विकल्प वाला होता है / प्रायः समाचार वाले के साथ सांभोगिक व्यवहार सम्बन्ध रखा जाता है, जिसका आचार सम न हो, उसके साथ नहीं। वृत्तिकार में 'समगुन्ज' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'समनोज' करके उसका अर्थ किया है--जो दर्शन से और वेष से सम हो, किन्तु भोजनादि व्यवहार से नहीं / साधर्मिक (समान धर्मा) तो मुनि भी हो सकते हैं, गृहस्थ भी / यहाँ-मुनि सार्मिक ही विवक्षित है / मुनि अपने 1. समनोज्ञ या समनुज्ञ के निम्मोक्त अर्थ शास्त्रों में किए गये हैं-(१) एक समाचारो-प्रतिबद्ध (प्रोप पातिक, आचारांग, व्यवहार) (2) सांभोगिक (निशीथ चू० 5 उ० 0313), (3) चारित्रवति संविग्ने (प्राचा० 1, 8 / 2 उ०), (4) अनुमोदनकर्ता (आचा० 161 / 1 / 5), (5) अनुमोदित (प्राचा. वृ. पाइप्रसद्द०) 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 264 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org