________________ 244 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्वन्ध हणी पाणे घातमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा, अदुवा अदिनमाइयंति, अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अस्थि लोए, णस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, सादिए लोए, अणादिए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साधु ति वा असाधु ति वा सिद्धी ति वा असिद्धी ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा / जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा / एत्थ वि जाणह अकस्मात् / 200, इस मनुष्य लोक में कई साधकों को आचार-गोचर (शास्त्र-विहित आचरण) सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु-जीवन में (पचन-पाचन आदि सावध क्रियाओं द्वारा प्रारम्भ के अर्थी हो जाते हैं, प्रारम्भ करने वाले (अन्यमतीय भिक्षुओं) के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणिवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त (बिना दिए हुए पर-द्रव्य) का ग्रहण करते हैं / अथवा वे विविध प्रकार के (एकान्त व निरपेक्ष) वचनों का प्रयोग (या परस्पर विसंगत अथवा विरुद्ध एकान्तवादों का प्ररूपण) करते हैं / जैसे कि-- (कई कहते हैं-) लोक है, (दूसरे कहते हैं-) लोक नहीं है / (एक कहते हैं-) लोक ध्र व है, (दूसरे कहते हैं -) लोक अध्र व है / (कुछ लोग कहते हैं-) लोक सादि है, (कुछ मतवादी कहते हैं-) लोक अनादि है। (कई कहते हैं-) लोक सान्त है, (दूसरे कहते हैं-) लोक अनन्त है। (कुछ दार्शनिक कहते हैं-) सुकृत है, (कुछ कहते हैं-) दुष्कृत है। (कुछ विचारक कहते हैं-) कल्याण है, (कुछ कहते हैं-) पाप है / (कुछ कहते हैं। साधु (अच्छा) है, (कुछ कहते हैं-) असाधु (बुरा) है / (कई वादी कहते हैं-) सिद्धि (मुक्ति) है, (कई कहते हैं--) सिद्धि (मुक्ति) नहीं है / (कई दार्शनिक कहते हैं-) नरक है, (कई कहते हैं-)नरक नहीं है। ___ इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए (नाना प्रकार के प्राग्रहों को स्वीकार किए हुए जो ये मतवादी) अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनके (पूर्वोक्त प्ररूपण) में कोई भी हेतु नहीं है, (ये समस्त वाद ऐकान्तिक एवं हेतु शून्य हैं), ऐसा जानो। विवेचन-असमनोज्ञ की पहिचान-- असमनोज्ञ साधुओं की पहिचान के भिन्न वेष के अलावा दो और आधार इस सूत्र में बताए हैं--- (1) मोक्षार्थ अहिंसादि के प्राचार में विषमता एवं शिथिलता (2) एकत्न्तवाद के सन्दर्भ में एकान्त एवं विरुद्ध दृष्टि-परक श्रद्धा-प्ररूपणा / 1. 'हण पाणे घातमाणा' के बदले चूणि में पाठान्तर है-'हणपाणघातमाणा। अर्थ किया है--'सयं हणंति एगिदियाती, घातमाणा रंधावेमाणा-अर्थात्-स्वयं एकेन्द्रियादि प्राणियों का हनन करते हैं तथा प्राणियों का मांस पकवाते हैं, इस प्रकार प्राणिघात करवाते हैं। 2. लोक कूटस्थ नित्य है (शाश्वतवाद)। 3. लोक क्षण-क्षण परिवर्तनशील है (परिवर्तनवाद)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org