________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्धा (2) प्राभ्यन्तर संयोग-राग-द्वेष, कषाय, आठ प्रकार के कर्म आदि। आज्ञा का प्राराधका संयमी उक्त दोनों प्रकार के संयोगों से मुक्त होता है। एस णाए. शब्द से दो अभिप्राय हैं--यह न्याय मार्ग (सन्मार्ग) हैं, तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मान है / सूत्रकृत् में भी नेआउ सुअक्खाय एवं "सिद्धिपह मयाउयं धुकं"* पद द्वारा सम्यग झाम-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का तथा मोक्ष स्थान का सूचन किया गया है। __ एष नायक:-यह-प्राज्ञा में चलने वाला मुनि मोक्ष मार्म की अंर ले जाने वाला मायके नेता है / यह दूसरा अर्थ है। में दुक्खं पर्वेदितं-पद में दुःख शब्द से दुःख के हेतुओं का भी ग्रहण किया गया है / दुःख का हेतु राग-द्वेष है अथवा राग-द्वेषात्मक वृत्ति से प्राकृष्ट-बद्ध कर्म हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार जन्म और मरण दुःख है और जन्म मरण का मूल है---कर्म / अतः कम ही वास्तव में दुःख है / कुशल पुरुष उस दुःख की परिझा- अर्थात् दुःख से मुक्त होने का विवेक ज्ञान बताते हैं। इंह कम्म परिनाय सदसो-इस पद का एक अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है. 'साधक कर्म को, अर्थात दुख के समस्त कारणों को सम्यक्तया जानकर फिर उसका सर्व प्रकार से उपदेश करे। अणण्णदंसी अणण्णारामै- ये दोनों शब्द आध्यामिक रहस्य के सूचक प्रतीत होते हैं। अध्यात्म की भाषा में चेतन को 'स्व' तथा जड़ को 'पर'-अन्य कहा गया है। परिग्रह, कषाय, विषय आदि सभी 'अन्य' है। 'अन्य' से अन्य अनन्य है, अर्थात् चेतन का स्वरूप, आत्मस्वभाव, यह अनन्य है। जो इस अनन्य को देखता है, वह इस अनन्य में, प्रात्मा में रमण करता है। जो प्रात्म-रमण करता है, वह आत्मा को देखता है / आत्म-रमण एवं आत्मदर्शन का यह क्रम है कि जो पहले आत्म-दर्शन करता है, वह आत्म-रमण करता है। जो प्रारम-रमण करता है, वह फिर अत्यन्त निकटता से, अति-सूक्ष्मता व तन्मयता से साँग आत्म-दर्शन कर लेता है। रत्नत्रय की भाषा-शैली में इस प्रकार भी कहा जा सकता है, 'प्रात्मा को जानना---- देखना सम्यग ज्ञान और सम्यग दर्शन और आत्मा में रमण करना सम्यक चारित्र है। उपदेश-कौशल 102. जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कस्थति / महा तुच्छरस कत्थति सहा पुण्णस्स कत्थति / अवि य हणे अणातियमाणे / एत्यं पि जाण मेयं ति मस्थि / केऽयं पुरिसे कं च गए। 1. श्रु० 1 * 6 गा० 11 / 3. श्रु० 1 0 2 0 1 गा० 21 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रक 13 / 4. कम्मच जाई मरणस्स मुलं, दूवखं च जाई मरणं वयन्ति--२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org