________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक :: सूत्र 102-104 103. एस कोरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं विसासु, से सब्बलो सवपरिण्णाचारीण लिपति छणपदेण वीरे। 104. से मेधावी जे अपुग्धातणस्स* खेत्तपणे जे य बंधपमोक्खमण्णसी। कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के / से जंच आरंभे, जं च णारभे, अणारद्धं च आरभे / छणं छप परिण्याय लोयसण्यं च सव्वसो। 102. (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान (सम्पन्न) व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न-दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है और जैसे तुच्छे को धर्मोपदेश करता है, बसे ही पुण्यवान को भी धर्मोपदेश करता है / कभी (धर्मोपदेश-काल में किसी व्यक्ति या सिद्धान्त का) अनादर होने पर वहे (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है / अतः यहाँ यह भी जाने (उपदेश को उपयुक्त विधि जाने बिना) धर्म कथर करना श्रेय नहीं है / पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए कि यह पुरुष (श्रोता) कौन है ? किस देवता को (किस सिद्धान्त को) मानता है ? 103. वह वरेर प्रशंसा के योग्य है, जो (समीचीन धर्म कथन करके) बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह (कुशल साधक) ऊँची दिशा, नोचो दिशा और तिरछी दिशाओं में, सबै प्रकार से समग्र परिज्ञाविवेकज्ञान के साथ चलता है। वह हिंसा स्थान से लिप्त नहीं होता। 104. वह मेधावी है, जो अनुदात-अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता है, तथा जो कर्मों के बंधन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है। कुशल पुरुष न बंधे हुए हैं और न मुक्त हैं। उन कुशल साधकों ने जिसकी आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर, श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। हिंसा और हिंसा के कारणों को जानकर उनका त्याग करदे / लोक-संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। विवेचन--प्रस्तुत सूत्रों में धर्म-कथन करने की कुशलता का वर्णन है / तत्त्वज्ञ उपदेशक 1. (क) 'अणुग्घायणस्स खेषण्णे' 'अणुग्घातण खेतण्णे'-पाठान्तर है। (ख) टीकाकार ने 'अण' का अर्थ कर्म तथा 'उद्घातन' का 'क्षय करना' अर्थ करके 'अणीद्धातन सेवज्ञ' का कर्म क्षय करने के मार्ग या रहस्य का बाता' अयं किया है। --टीका पत्र 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org