________________ 60 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्म के तन्व को निर्भय होकर समभाव पूर्वक उपदेश करता है। सामने उपस्थित श्रोता समुह (परिषद) में चाहे कोई पुण्यवान-धन अादि से सम्पन्न है, चाहे कोई गरीब, सामान्य स्थिति का व्यक्ति है / साधक धर्म का मर्म समझाने में उनमें कोई भेदभाव नहीं करता / वह निर्भय, निस्पृह और यथार्थवादी होकर दोनों को समानरूप से धर्म का उपदेश देता है। पुण्णस्स-शब्द का 'पूर्णस्य' अर्थ भी किया जाता है। पूर्ण की व्याख्या टीका में इस प्रकार की है ज्ञानेश्वयं-धनोपेतो जात्यन्वयबलान्वितः / तेजस्वी मतिवान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् // जो ज्ञान, प्रभुता, धन, जाति और बल से सम्पन्न हो, तेजस्वी हो, बुद्धिमान् हो, प्रख्यात हो, उसे 'पूर्ण' कहा गया है / इसके विपरीत तुच्छ समझना चाहिए। सूत्र के प्रथम चरण में वक्ता की निस्पृहता तथा समभावना का निदर्शन है, किन्तु उत्तर चरण में बौद्धिक कुशलता की अपेक्षा बताई गई है। वक्ता समयज्ञ और श्रोता के मानस को समझने वाला होना चाहिए। उसे श्रोता की योग्यता, उसकी विचारधारा, उसका सिद्धान्त तथा समय को उपयुक्तता को समझना बहुत आवश्यक है। वह द्रव्य से—समय को पहचाने, क्षेत्र से- इस नगर में किस धर्म सम्प्रदाय का प्रभाव है, यह जाने / काल से परिस्थिति को परखे, तथा भाव से--श्रोता के विचारों व मान्यताओं का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करे / इस प्रकार का कुशल पर्यवेक्षण किये विना हो अगर वक्ता धर्म-कथन करने लगता है तो कभी संभव है, अपने संप्रदाय या मान्यताओं का अपमान समझकर श्रोता उलटा बक्ता को ही मारने-पीटने लगे। और इस प्रकार धर्म-वृद्धि के स्थान पर क्लेश-वृद्धि का प्रसंग प्रा जाये / शास्त्रकार ने इसीलिए कहा है कि इस प्रकार उपदेश-कुशलता प्राप्त किये बिना उपदेश न देना ही श्रेय है। अविधि या अकुशलता से कोई भी कार्य करना उचित नहीं, उससे तो न करना अच्छा है। टीकाकार ने चार प्रकार की कथाओं का निर्देश करके बताया है कि बहुश्र त वक्ताआक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी-चारों प्रकार की कथा कर सकता है। अल्पश्रत (अल्पवानी) वक्ता सिर्फ संवेदनी (मोक्ष की अभिलाषा जागत करने वाली) तथा निर्वेदनी (वैराग्य प्रधान) कथा ही करें। वह आक्षेपणी (स्व-सिद्धान्त का मण्डन करने वाली) तथा विक्षेपणी (पर-सिद्धान्त का निराकरण-निरसन करने वाली) कथा न करें। अल्पश्रत के लिए प्रारंभ को दो कथाएँ श्रेयस्कर नहीं है। सूत्र 104 में कुशल धर्म कथक को विशेष निर्देश दिये गये हैं। वह अपनी कुशल धर्मकथा के द्वारा विषय-पासक्ति में बद्ध अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध देकर मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर देता है। वास्तव में बंधन से मुक्त होना तो आत्मा के अपने ही पुरुषार्थ से संभव है। किन्तु धर्म-कथक उसमें प्रेरक बनता है, इसलिए उसे एक नय से बन्ध-मोचक कहा जाता है। 1. बंधप्पभोक्खो तुज्झ अज्झत्थमेव -आचासंग-सूत्र 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org