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________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 105 अणुग्धातणस्स खेतण्णे-इस पद के दो अर्थ हो सकते हैं / टीकाकार ने-'कर्म प्रकृति के मूल एवं उत्तर भेदों को जानकर उन्हें क्षीण करने का उपाय जानने वाला यह अर्थ किया है।' उद्घात-घात ये हिंसा के पर्यायवाची नाम है / अतः 'अन+उद्+घात' अनुद्घात का अर्थ अहिंसा व संयम भी होता है / साधक अहिंसा व संयम के रहस्यों को सम्यक् प्रकार से जानता है, अतः वह भी अनुद्घात का खेदज्ञ कहलाता है। बंधप्पमोक्खमण्णेसी-इस पद का पिछले पद से सम्बन्ध करते हुए कहा गया हैजो कर्मों का समग्र स्वरूप या अहिंसा का समग्र रहस्य जानता है, वह बंधन से मुक्त होने के उपायों अन्वेषण आचरण भी करता है। इस प्रकार ये दोनों पद ज्ञान-क्रिया की समन्विति के सूचक हैं। ___कुसले पुण जो बद्ध-यह वाक्य भी रहस्यात्मक है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-कर्म का ज्ञान व मुक्ति की खोज-ये दोनों आचरण छद्मस्थ साधक के हैं। जो केवली हो चुके हैं, वे तो चार घातिकर्मों का क्षय कर चुके हैं, उनके लिए यह पद है। वे कुशल (केवली) चार कर्मों का क्षय कर चुके हैं अतः वे न तो सर्वथा बद्ध कहे जा सकते हैं और न सर्वथा मुक्त, क्योंकि उनके चार भवोपनाही कर्म शेष है। _ 'कुशल' शब्द आगमों में अनेक स्थानों पर अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कहीं तत्वज्ञ को कुशल कहा है, कहीं आश्रवादि के हेय-उपादेय स्वरूप के जानकार को। सूत्रकृतांग वृत्ति के अनुसार 'कुश' अर्थात् आठ प्रकार के कर्म, कर्म का छेदन करने वाले 'कुशल' कहलाते हैं।' यहाँ पर 'कुशल' शब्द तीर्थकर भगवान् महावीर का विशेषण है। वैसे, ज्ञानी, धर्म-कथा करने में दक्ष, इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, विभिन्न सिद्धान्तों का पारगामी, परीषह-जयी, तथा देश-काल का ज्ञाता मुनि कुशल कहा जाता है / प्रस्तुत सूत्र में 'कुशल' शब्द 'केवली' के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। छणं-छणं-यह शब्द दो बार पाने का प्रयोजन यह है कि हिंसा को, तथा हिंसा के कारणों को, तथा लोक-संज्ञा को समान रूप से जानकर उसका त्याग करे। 105. उद्देसो पासगस्स पत्थि / बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणपरियट्टति त्ति बेमि। ॥छट्ठो उद्देसओ समत्तो। 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 133 2. आयुष्य, वेदनीय, नाम, गोत्र-ये चार भवोपनाही कर्म हैं। 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 133 4. प्राचा० 1 / 2 / 2 5. भगवती श० 2 / उ०५ 6. सूत्रकृत श६ 7. आचाटीका पत्रांक 13411 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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