________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 105. द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वाले के लिए) कोई उद्देश-(विधि-निषेध रूप विधान/निदेश) (अथवा उपदेश) नहीं है। बाल--(अज्ञानी) / बार-बार विषयों में स्नेह (प्रासक्ति) करता है। कामइच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (उनका सेवन करता है) इसलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। वह शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है / -ऐसा मैं कहता हूँ। ॥षष्ठ उद्देशक समाप्त // // लोगविजय द्वितीय अध्ययन समाप्त / / 1. विषयों की तीव्र प्रासक्ति के कारण मानसिक उद्वेग, चिंता, व्याकुलता रहती है तथा विषयों के अत्यधिक सेवन से शारीरिक दुख-रोग, पीड़ा आदि उत्पन्न होते हैं / 2. चूणि में पाठ इस प्रकार है-दुक्खी दुक्खावट्टमेए अणुपरियट्टति दुक्खाणं प्रावटो दुक्खावटो-चूणि (मुनि जम्बूविजयजी, टिप्पण पृ० 30) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org