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________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 178-179 है, बस, वहाँ आसक्त होकर भटक जाता है / हाथ से निकला यह अवसर (विधर) पुनः प्राप्त नहीं होता और मनुष्य खेदखिन्न हो जाता है। संयम आकाश के दर्शन पुनः दुर्लभ हो जाते हैं। (2) वृक्ष-सर्दी, गर्मी, अांधी, वर्षा आदि प्राकृतिक आपत्तियों तथा फल-फूल तोड़ने के इच्छुक लोगों द्वारा पीड़ा, यातना, प्रहार आदि कष्टों को सहते हुए वृक्ष जैसे अपने स्थान पर स्थित रहता है, वह उस स्थान को छोड़ नहीं पाता, वैसे ही गृहवास में स्थित मनुष्य अनेक प्रकार के दुःखों, पीड़ाओं, 16 महारोगों से आक्रान्त होने पर भी वे मोहमूढ़ बने हुए दुःखालय रूप गृहवास का त्याग नहीं कर पाते। प्रथम उदाहरण एक बार सत्य का दर्शन कर पुन: मोहमूढ़ अवसर-भ्रष्ट प्रात्मा का है, जो पूर्वाध्यास या पूर्व-संस्कारों के कारण संयम-पथ का दर्शन करके भी पुनः उससे विचलित हो जाती है। दूसरा उदाहरण अब तक सत्य-दर्शन से दूर अज्ञानग्रस्त, गहवास में प्रासक्त प्रात्मा का है। दोनों ही प्रकार के मोहमूढ़ पुरुष केवलीप्ररूपित धर्म का, आत्म-कल्याण का अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं और वे संसार के दुःखों से त्रस्त होते हैं। जैसे वृक्ष दु:ख पाकर भी अपना स्थान नहीं छोड़ पाता, वैसे ही पूर्व-संस्कार, पूर्वग्रहमिथ्या-दृष्टि, कुल का अभिमान, साम्प्रदायिक अभिनिवेश आदि की पकड़ के कारण वह संसार में अनेक प्रकार के कष्ट पाकर भो उसे छोड़ नहीं सकता। आत्म-कृत दुःख 179. अह पास तेहि कुलेहि आयत्ताए जाया गंडी अदुवा कोढी रायंसी अवमारियं / काणियं झिमियं चेव कुणितं खुज्जितं सहा // 13 // उरि च पास मूइंच सूणियं च गिलासिणि / वेवई पीढसपि च सिलिवयं मधुमेहणि // 14 // 1. इसके बदले चूणि में पाठ है—'तेहि तेहिं कुलेहिं जाता'-उन-उन कुलों में पैदा हुए। 2. इसके बदले 'सिमियं' पाठ है / चूणि में अर्थ किया है—सिमिता अलसयवाही--सिमिता = पालस्य वाही व्याधि / 3. 'सूणियं' के बदले किसी-किसी प्रति में सूणीयं, पाठ मिलता है / चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-- 'मूणीया सूणसरीरा'-शरीर का शून्य हो जाता, शून्य रोग है। 4. गिलासिणि का अर्थ वृत्तिकार 'भस्मकन्याधि' करते हैं। 5. सिलिवयं के वदले चूणि में 'सिलवती' पाठ है / अर्थ किया गया है---'सिलवती पादा सिलीभवंति' श्लीपद-हाथीपगा रोग में पैर सूज कर हाथी की तरह हो जाते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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