________________ 196 आचारांग सूत्र---प्रथम भृतस्कन्ध सोलस एते रोगा अक्खाया अणुपुष्यसो / अह णं फुसंति आतंका फासा य असमंजसा // 15 // 180. मरणं' तेसि सपेहाए उववायं चयणं च गच्चा परिपागं च सपेहाए तं सुणेह जहा तहा। संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिता / तामेव सई असई अतियच्च उच्चावचे फासे पडिसंवेदेति / बुद्ध हि एवं पवेदितं। संति पाणा वासगा रसगा उदए उदयचरा आगासगामिणो। पाणा पाणे किलेसंति / पास लोए महब्भयं / बहुदुक्खा हु जंतवो। सत्ता कामेहि माणवा / अबलेण वहं गच्छति सरीरेण पभंगुरेण / अट्टे से बहुदुक्खे इति बाले पकुवति / एते रोगे बहू गच्चा आतुरा परितावए / णालं पास / अलं तवेतेहिं / एतं पास मुणी ! महब्भयं / णातिवादेज्ज कंचणं / 179. अच्छा तू देख वे (मोह-मूढ़ मनुष्य) उन (विविध) कुलों में आत्मत्व (अपने-अपने कृत कर्मों के फलों को भोगने) के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं—(१) गण्डमाला, (2) कोढ़, (3) राजयक्ष्मा (तपेदिक), (4) अपस्मार (मृगी या मूर्छा), (5) काणत्व (कानापन), (6) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (7) कुणित्व (टूटापन, एक हाथ या पैर छोटा और एक बड़ा), (8) कुबड़ापन, (9) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (10) मूकरोग (गूगापन), (11) शोथरोग-सूजन, 1. इसके अतिरिक्त चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं-(१) 'फासा....."असमंतिया' (2) फासा..." असममिता, (3) फासा य असमंजसा / क्रमशः अर्थ किये हैं--(१) असमतिया =नाम अप्पत्तव्या, (2) असमिता=असमिता णाम विसमा तिब्वमंदमज्झा, (3) अहवा फासा य असमजसा उल्लत्यपल्लत्था।" अर्थात् असमंत्रिता-अप्राप्तपूर्वस्पर्श, जो स्पर्श अप्रत्याशित रूप में प्राप्त हए हों, अपूर्व हों। असमिता का अर्थ है -विषम-तीव्र-मन्द-मध्यम स्पर्श अथवा जो स्पर्श उलट-पलट हों उन्हें प्रसमंजस स्पर्श कहते हैं। 2. इसके बदले चूणि में पाठ है-'मरणं (च) तस्थ सपेहाए।' अर्थ किया गया हैं-मरण तत्व समि न च सहा जम्मणं च-साथ ही उनमें मरण की भी सम्यक समीक्षा करके, च शब्द से 'जन्म' का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। 3. इसके बदले चूणि में 'तम पविट्ठा' पाठ है। जिसका अर्थ किया गया है-अन्धकार में प्रविष्ट / 4. इसके बदले किसी-किसी प्रति में 'तामेव सय असई अतिगच्च०" सयं का अर्थ स्वयं है, बाकी के अर्थ समान हैं। 5. चूणि में पाठान्तर मिलता है—'उच्चावते फासे....."पडिवेदेति' / अर्थ वही है / 6. 'पकुम्वति के बदले पगम्भति' पाठ चूणि में है / अर्थ होता है--प्रगल्भ (धृष्टता) करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org