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________________ 194 आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध 178. कुछ (विरले लघुकर्मा) महान् वीर पुरुष इस प्रकार के ज्ञान के प्राख्यान (उपदेश) को सुनकर (संयम में) पराक्रम भी करते हैं। (किन्तु) उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए (संयम में) विषाद पाते हैं, (उनकी करुणदशा को इस प्रकार समझो) / / ___ मैं कहता हूँ-जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त (एक) महाह्रद (–सरोवर) में लगाना है। वद्रसरोवर वाल और कमल के पत्तों से ढका इना है। वह कछा उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है / जैसे वृक्ष (विविध शीत-ताप-तूफान तथा प्रहारों को सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट, यातना, दुःख आदि बार-बार पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते)। इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक (दरिद्र, सम्पन्न, मध्यवित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं, (धर्माचरण के योग्य भी होते है), किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों से, उपद्रवों से और भयं: कर रोगों से आक्रान्त होने पर.) करुण विलाप करते हैं, लेकिन इस पर भी वे दुःखों के प्रावास-रूप गृहवास को नहीं छोड़ते) / ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। विवेचनात्मज्ञान से शून्य पूर्वग्रह तथ पूर्वाध्यास से ग्रस्त व्यक्तियों की करुणदशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने दो रूपक प्रस्तुत किये हैं--- (1) शवाल-एक बड़ा विशाल सरोवर था / वह सधन शैवाल और कमल-पत्रों (जलवनस्पतियों) से आच्छादित रहता था / उस में अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जलचर जीव निवास करते थे। एक दिन संयोगवश उस सघन शैवाल में एक छोटा-सा छिद्र हो गया। एक कछुपा अपने पारिवारिक जनों से बिछुड़ा भटकता हुआ उसी छिद्र (विवर) के पास आ पहुंचा / उसने छिद्र से बाहर गर्दन निकाली, अाकाश की ओर देखा तो चकित रह गया। नील गगन में नक्षत्र और ताराओं को चमकते देखकर वह एक विचित्र प्रानन्द में मग्न हो उठा / उसने गोचा- "ऐसा अनुपम दृश्य तो मैं अपने पारिवारिक जनों को भी दिखाऊँ।" वह उन्हें बुलाने के लिए चल पड़ा। गहरे जल में पहुँचकर.उसने परिवारीजनों को उस अनुपम दृश्य की बात सुनाई तो पहले तो किसी मे विश्वास नहीं किया, फिर उसके आग्रहवश सब उस विवर को खोजते हुए चल पड़े। किन्तु इतने विशाल सरोवर में उस लघु छिद्र का कोई पता नहीं चला, वह विवर उसे पुनः प्राप्त नहीं हुआ। रूपक का भाव इस प्रकार है--संसार एक महाहद है। प्राणी एक कछया है। कर्मरूप अज्ञान-शैवाल से यह आवृत्त है / किसी शुभ संयोगवश सम्यक्त्व रूपी छिद्र (विवर) प्राप्त हो गया / संयम-साधना के आकाश में चमकते शान्ति प्रादि नक्षत्रों को देखकर उसे प्रानन्द हुआ / पर परिवार के मोहवश वह उन्हें भी यह बताने के लिए वापस घर जाता है, गृहवासी बनता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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