________________ 193 षष्ट अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 17778 बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि रूपों में सभी प्रकार के संशय-विपर्यय-अनध्यवसायादि दोषों से रहित होकर स्पष्ट रूप से जानी-समझी होती हैं।' आधाति से णाणममेलिसं-वह(पूर्वोक्त विशिष्ट ज्ञानी पुरुष)मनीश-अनुपम या विशिष्ट ज्ञान का कथन करते हैं / वृत्तिकार के अनुसार वह अनन्य-सदृश ज्ञान आत्मा का ही ज्ञान होता है, जिसके प्रकाश में (श्रोता को) जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों का सम्यक् बोध हो जाता है। अनुपम ज्ञान का आख्यान किन-किन को?—इस सन्दर्भ में ज्ञान-श्रवण के पिपासु श्रोता की योग्यता के लिए चार गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है-वह (1) समुत्थित, (2) निक्षिप्तदण्ड-हिंसापरित्यागी, (3) इन्द्रिय और मन की समाधि से सम्पन्न और (4) प्रज्ञावान हो / समुठियाण-धर्माचरण के लिए जो सम्यक् प्रकार से उद्यत हो वह समुत्थित कहलाता है। यहाँ वृत्तिकार ने उत्थित के दो प्रकार बताये हैं-द्रव्य से और भाव से / द्रव्यतः शरीर से उत्थित (धर्म-श्रवण के लिए श्रोता का शरीर से भी जागृत होना आवश्यक है), भावतः ज्ञानादि से उत्थित / भाव से उत्थित व्यक्तियों को ही ज्ञानी धर्म या ज्ञान का उपदेश करते हैं / देवता और तियंचों, जो उत्थित होना चाहते हैं, उन्हें तथा कुतूहल आदि से भी जो सुनते हैं, उन्हें भी धर्मोपदेश के द्वारा वे ज्ञान देते हैं / / किन्तु आगे चलकर वृत्तिकार निक्षिप्तदण्ड आदि सभी गुणों को भाव-समुत्थित का विशेषण बताते हैं, जबकि उत्थित का ऊपर बताया गया स्तर तो प्राथमिक श्रेणी का है, इसलिए प्रतीत होता है कि भाव-समुत्थित आत्मा, सच्चे माने में आगे के तीन विशेषणों से युक्त हो, यह विवक्षित है और वह व्यक्ति साधु-कोटि का ही हो सकता है / मोहाच्छन्न जीठ की करुण-दशा 178. एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति / पासह एगेऽवसीयमाणे अणत्तपण्णे / से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणिविचित्ते पच्छण्णपलासे, उम्मुग्गं से जो लभति / भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति / एवं पेगे अणेगरूवेहि कुलेहिं जाता रूहि सत्ता कलुणं थणंति, णिदाणतो ते ण लभंति मोक्खं / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 211 / 2. आचा• शीला टीका पत्रांक 211 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक, 211 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 211 / 5. 'एगेऽवसीयमाले' के बदले पाठान्तर है---'एगे विसीदमाणे' चूर्णिकार अर्थ करते हैं-विविहं सीयंति.. ते विसीयंति-विविध प्रकार से दुःखी होते हैं। 6. 'उम्मुग्ग' के बदले उम्मग्गं पाठ भी है। 7. 'अरणेगगोतेसु कुलेसु' पाठान्तर है। एगे ण सब्वे, अणेगगोतेसु मरुगादिसु 4 प्रहवा उच्चणीएसु--यह अर्थ चूर्णिकार ने किया है। अर्थात्-सभी नहीं, कुछेक, मरुक प्रादि भनेक गोषों में, कुलों में... अथवा उच्चनीच कुलों में-उत्पन्न / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org