________________ तईयं अज्झयणं 'इरिया' पढमो उद्देसओ ईर्या : तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक वर्षावास-विहारचर्या 464. अम्भुवगते' खलु वासावासे अभिपवुटु, बहवे पाणा अभिसंभूया, बहवे बोया' अहुणुभिण्णा, अंतरा' से मग्गा बहुपाणा बहुबोया जाव संताणगा, अणण्णोकंता पंथा, जो विण्णाया मग्गा, सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, ततो संजयामेव वासावास उवल्लिएज्जा / 465. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा णो महती विहारभूमी', णो महती वियारभूमी, णो सुलभे निशीथ चणि के दशवे उद्देशक पृ० 122 में इसी विधि का वर्णन चूर्णिकार ने किया है"आचारांगस्य बितियसुयक्खंधे---जो विधी भणितो, सो य इमो-अन्भुवगते खलु वासवासे "वासावासं उविलिइज्जा।" इसका अर्थ मूल पाठ के अनुसार है। 2. चूणिकार ने 'बीया अहणुन्भिाण्णा' का अर्थ किया है-'अंकुरिता--इत्यर्थः- अर्थात् बीज अंकुरित हो जाते हैं। 3. अंतरा से मग्गा---आदि का भावार्थ चूणि में यों है—अन्तर ति वरिसारत्तो जहा 'अंतरघणसामलो ___ भगवं,' अन्तरालं वा अंतो। अन्तरा का अर्थ-वर्षाऋतु में जैसे अन्तर धन-श्यामल भगवान् मेघ छाये रहते हैं, अथवा अन्तराल में-बीच में, अन्दर, में। 4. यहाँ जाव शब्द से 'बहुबीया' से लेकर 'संताणगा' तक का पाठ है। 5. अणण्णोकंता की व्याख्या चुणिकार ने इस प्रकार की है-अणण्णोकता लोएणं चरगावोहि वा अक्कंता वि अणक्कंतसरिसा / अर्थात्--'अनन्याक्रान्त' का भावार्थ है-जनता से, वा चरक आदि परिवाजक द्वारा आक्रान्त मार्ग भी अनन्या क्रान्त सदृश प्रतीत होते हैं। णो महतो बिहारभूमि---आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार---- "वियारभूमी काइयाभूमी पत्थि, विहारभूमि-सज्ज्ञायभूमी पत्थि। पीढ़ा कट्ठमया, इहरहा वरिसारित णिसिज्जा कुच्छति, फलगं संथारओ सेज्जा-उवस्सओ, संथारओ-कविणादी, जहन्नेण चउग्गणं खेत्त वियार-विहारवसही-आहारे।" विचारभूमिकायिकाभूमि-मलमूत्रोत्सर्ग भूमि नहीं है। विहार भूमि-स्वाध्यायभूमि नहीं है। पीढाकाष्ठनिर्मित चौकी या बाजोट, वर्षा ऋतु में बैठने की जगह में वनस्पति, लीलण-फूलण उग आती है अत: इन पर बैठे। फलग-पट्टा, पाटिया, तख्त, (संस्तारक), सेज्वा= उपाश्रय, संयारओ-कढ़िणक आदि तृण, घास आदि / साधु को नीहार, स्वाध्याय, आवासस्थान एवं आहार के लिए कम से कम चार गुना क्षेत्र अपेक्षित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org