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________________ 172 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए, णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, बहवे जत्थ समण-माहण-अतिहि -किवण-वणीमगा उवागता उवागमिस्संति च, अच्चाइण्णा वित्ती, णो पण्णस्स णिक्खमण जाव' चिताए / सेवं गच्चा तहप्पगारं गाम वा णगरं वा जाव रायहाणि वा जो वासावासं उवल्लिएज्जा / 466. से भिवख वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्णा गाम वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा महती विहारभूमी, महतो वियारभूमी, सुलभे जत्थ पीढ-फलगसेज्जा-संथारए, सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य, अप्पाइण्णा वित्ती' जाव रायहाणि वा ततो संजयामेव वासावासं उल्लिएज्जा। 467. अह पुणे जाणेज्जा--चत्तारि मासा वासाणं वोतिक्कता, हेमंताण य पंच-इसरायकप्पे परिवुसिते, अंतरा से मग्गा बहुपाणा जावसंताणगा, जो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य, सेवं णच्चा णो गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 468. अह पुणेवं जाणेज्जा--चत्तारि मासा वासाणं बोतिक्कता, हेमंताण य पंच-दसरायकप्पे परिवुसते अंतरा से मग्गा अप्पंडा जाव संताणगा, बहवे जत्थ समण जाव' उवागमिस्संति य / सेवं गच्चा ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 464. वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहुत-से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत-से बीज अंकुरित हो जाते हैं, (पृथ्वी, घास आदि से हरी हो जाती है) मार्गों में बहुत-से प्राणी, बहुत-से बीज उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत हरियाली हो जाती है, ओस और पानी बहुत स्थानों में भर जाते हैं, पाँच वर्ण की काई लीलण-फूलण आदि स्थान-स्थान पर हा जाती है, बहुत-से स्थानों में कीचड़ या पानी से मिट्टी गीली हो जाती है, कई जगह मकड़ी के जाले हो 1. जाव शब्द से निक्खमण से लेकर चिताए तक का पाठ है। 2. 'णगरं का' से लेकर 'रायहाणि वा' तक का पाठ सूत्र 318 के अनुसार है। 3. 'उवल्लिएज्जा' के स्थान पर पाठान्तर है-'उवल्लीएज्जा, उवलितेज्जा / ' चुणिकार इसका भर्थ इस प्रकार करते हैं---'उल्लिएज्जा -आगच्छेज्जा'=आकर रहे। 4. जाव शब्द से यहाँ 'समण' से लेकर 'उवागामिस्संति' तक का पूर्ण पाठ सूत्र 465 के अनुसार समझें। 5. 'वित्ती' से लेकर 'रायहाणि' तक का सम्पूर्ण पाठ सूत्र 465 के अनुसार समझने के लिए यहाँ जाय शब्द है। 6. 'पंच-दसरायकप्पे'-.-के स्थान पर चुणिमान्य पाठान्तर है---'दसरायकप्पे' / 7. जाव शब्द से यहाँ 'बहुपाणा' पद से लेकर 'संताणगा' पद तक का समग्र पाठ सू० 464 के अनुसार समझें। 8. 'वीतिक्कंता' के स्थान पर पाठान्तर है-बीतिकता, वियिकता / अर्थ समान है। 6. यहाँ जाव शब्द से समण से लेकर 'उवागमिस्संति' तक का समग्र पाठ सुत्र 465 के अनुसार समझें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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