________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 464.68 173 जाते हैं। वर्षा के कारण मार्ग रुक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जा सकता, क्योंकि (हरी घास छा जाने से) मार्ग का पता नहीं चलता। इस स्थिति को जानकर साधु को (वर्षाकाल में) एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए / अपितु वर्षाकाल में ययावसर प्राप्त वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करना चाहिए। 465. वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी को उस ग्राम, नगर खेड़, कर्बट, मडंब, पट्टण, द्रोणमुख, आकर (खान), निगम, आश्रम, सन्निवेश या राजधानी की स्थिति भलीभांति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम नगर यावत् राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि न हो, (ग्राम आदि के बाहर) मल-मूत्रत्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ (चौकी), फलक (पट्ट), शय्या, एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, और न प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार-पानी ही सुलभ हो, जहाँ बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग (पहले-से) आए हुए हों, और भी दूसरे आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भीड़ हो, साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों से अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम, नगर आदि में वर्षाकाल प्रारंभ हो जाने पर भी साधु-साध्वी वर्षावास व्यतीत न करे। 466. वर्षावास करने वाला साधु या साध्वी यदि ग्राम यावत राजधानी के सम्बन्ध में यह जाने कि इस ग्राम यावत् राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल भूमि है, मल-मूत्र विसर्जन के लिए विशाल स्थण्डिल भूमि है, यहाँ पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ है, साथ ही प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है, यहां बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आए हुए नहीं है और न आएंगे, यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी इतनी नहीं है, जिससे कि साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों के लिए अपने स्थान से निकलना और प्रवेश करना कठिन हो, स्वाध्यायादि क्रिया भी निरूपद्रव हो सके, तो ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में साधु या साध्वी संयमपूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। 467. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो चुके हैं, अतः वृष्टि न हो तो (उत्सर्ग-मार्गानुसार) चातुर्मासिक काल समाप्त होते. ही दूसरे दिन अन्यत्र विहार कर देना चाहिए। यदि कार्तिक मास में वृष्टि हो जाने से मार्ग-आवागमन के योग्य न रहे तो हेमन्त ऋतु के पांच या दस दिन व्यतीत हो जाने पर वहाँ से विहार करना चाहिए। (इतने पर भी) यदि मार्ग बीच-बीच में अंडे, बीज, हरियाली, यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हों, अथवा वहां बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आए हुए न हों, न ही आने वाले हों, तो यह जानकर (सारे मार्गशीर्ष मास तक) साधु ग्रामानुग्राम विहार न करे। ___ 468. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो चुके हैं, और वृष्टि हो जाने से मुनि को हेमंत ऋतु के 15 दिन तक वहीं (चातुर्मास स्थल पर) रहने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org