________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 325-326 मुज्जियं वा मंयु वा चाउलं पा चाउलपलबं वा सई भज्जिय' अफासुयं जाव' णो पडिगाहेजा। से मिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई मज्जियं दुक्षुत्तो वा भज्जियं तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिज्जं लामे संते जाव' पडिगाहेज्जा। 325. गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्त होने की आशा से प्रविष्ट हुआ भिक्षु या भिक्षणी यदि इन औषधियों (बीज वाले अनाजों) को जाने कि वे अखण्डित (पूर्ण) हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक टुकड़े नहीं हुए हैं, जिनका तिरछा छेदन नहीं हुआ है, जीव रहित (प्रासुक) नहीं हैं, अभी अधपकी फली हैं, जो अभी सचित्त व अभग्न हैं या अग्नि में भुंजी हुई नहीं हैं, तो उन्हें देखकर उनको अप्रासुक एवं अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में भिक्षा लेने के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसी औषधियों को जाने कि वे अखण्डित नहीं हैं, विनष्टयोनि हैं, उनके दो या दो से अधिक टुकड़े हुए हैं, उनका तिरछा छेदन हुआ है, वे जीव रहित (प्रासुक) हैं, कच्ची फली अचित्त हो गयी हैं, भग्न हैं या अग्नि में भुंजी हुयी हैं, तो उन्हें देखकर उन्हें प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होती हो तो ग्रहण कर ले। 326. गृहस्थ के घर भिक्षा के निमित्त गया हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जान ले कि शाली, धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्त रज (तुष आदि) बहुत हैं, गेहूँ आदि अग्नि में भूजे हुए-अर्धपक्व हैं (आग में पूरे पके नहीं हैं)। गेहूँ आदि के आटे में तथा धान-कूटे चूर्ण में भी अखण्ड दाने हैं, कणसहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भूने हुए हैं या कूटे हुए हैं, तो उन्हें अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ अगर "वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि शाली, धान, जौ, गेहूं आदि बहुत रज (तुषादि) वाले हैं, आग में मुंजे हुए गेहूं आदि तथा गेहूँ आदि का आटा, कुटा हुआ धान 7. पिहुयं आदि शब्दों का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है—"पिहुगा सालिबीहीणं, बहुरया जवाणं भवति, मुज्जिग गोधूमाणा बुच्चंति"--पृथुक (अग्नि में भूजकर जो मूड़ी बनायी जाती है, वह) शालि श्रीहि धान्य की होती है, जो के बहुत रज (तुषादि) होती है, गेहूँ की धानी भूजी जाती है, वह अग्नि में अधपकी रह जाती है। 1. सई भज्जियं का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है-'एक्कासि दुम्भज्जित–अर्थात् एक बार अच्छी तरह अग्नि आदि में सेका (भजा) न हो। 2. यहाँ जाव शब्द से शेष पाठ सूत्र 325 के अनुसार समझें / 3. यहाँ जाव शब्द सूत्र 324 के अनुसार समग्र पाठ का द्योतक है। 4. असई मज्जियं की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं--बार-बार दो या तीन बार भूजने पर (ये सब) कल्पनीय हैं। किसी-किसी प्रति में भज्जियं के स्थान पर मज्जियं शब्द हैं, उसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है-मदितम्'-कुटा-पीसा हुआ या मसला हुआ। 5. यहाँ जाव शब्द सूत्र 325 के अनुसार शेष समग्र पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org