________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 780-82 407 का परित्याग, (2) अनुरूप चिन्तनपूर्वक भाषण, (3) क्रोध का परित्याग, (4) लोभ का परित्याग, और (5) भय का परित्याग / ' आवश्यक चूर्णि में भावनाओं का क्रम इस प्रकार है---२ _ 'अहस्ससच्चे अणुवीय भासए, जे कोह-लोह-भय-मेव वज्जए / से दोहरायं समुपेहिया सिया, मुणो हु मोसं परिवज्जए सिया // 2 // तत्वार्थ सूत्र में सत्य महाव्रत की पंच भावनाएं यों हैं---क्रोध, लोभ, भीरुत्व एवं हास्य का प्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण / इसीप्रकार समवायांगसूत्र में इसी आशय की 5 भावनाएं निर्दिष्ट है। 'अणुवीयिभासो' आदि पदों की व्याख्या-अणुवीयिभासी का अर्थ वृत्तिकार न किया हैजो कुछ बोलना है या जिसके सम्बन्ध में कुछ कहना है, पहले उसके सन्दर्भ में उसके अनुरूप विचार करके बोलना / बिना सोचे विचारे यों ही सहसा कुछ बोल देने या किसी विषय में कुछ कह देने से अनेक अनर्थों की सम्भावना है / बोलने से पूर्व उसके इष्टानिष्ट, हानि-लाभ, हिताहित परिणाम का भलीभाँति विचार करना आवश्यक है। चूणिकार 'अणुवीयिभासी' का अर्थ करते हैं - 'पुरवं बुद्धीए पासित्ता' अर्थात्-पहले अपनी निर्मल व तटस्थ बुद्धि से निरीक्षण करके, फिर बोलने वाला। अनवीचीभाषण का अर्थ तत्त्वार्थसूत्रकार करते हैं-निरवद्यनिर्दोष भाषण। इसीप्रकार क्रोधान्ध, लोभान्ध और भयभीत व्यक्ति भी आवेश में आकर कुछ का कुछ अथवा लक्ष्य से विपरीत कह देता है। अत: ऐसा करने से असत्य-दोष की सम्भावना है / हंसी-मजाक में मनुष्य प्रायः असत्य बोल जाया करता है। वैसे भी किसी की हंसी उड़ाना, कलह, परिताप, असत्य, क्लेश आदि अनेक अनर्थों का कारण हो जाता है / चुर्णिकार कहते हैं क्रोध में व्यक्ति पुत्र को अपुत्र कह देता है, लोभी भी कार्य-अकार्य का अनभिज्ञ होकर मिथ्या बोल देता है, भयशील भी भयवश अचोर को चोर कह देता है। द्वितीय महाव्रत की सम्यक् आराधना के लिए भी वही पूर्वोक्त चूणिसम्मत पाठ और उसका आशय पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 2. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि०१० 280--- "हास परियाणति से निग्गंथे."अणुवीइभासए से निग्गथे कोधं परियाणति से निग्गंथे..., लोभं परियाणति में निग्गथे... भयं परियाणति से निग्गथे / ' 2. आवश्यक चणि, प्रतिक्रमणाऽध्ययन प० 183-147 / 3. "क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीची भाषणं च पंच।" -तत्वार्थ० 7.5 अनुवीति भासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे / -समवायांग सूत्र (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 825 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ. 283 (ग) तत्वार्थ सर्वार्थसिद्धि टीका ७/४-अनुवीचीभाषण-निरवद्यानु भाषणमित्यर्थः / 6. चूर्णिकार सम्मत सम्यगाराधना के उपाय के सम्बन्ध में पाट देखिये -आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. 280-81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org