________________ 406 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध [3] तदनन्तर तृतीय भावना यह है---जो साधक लोभ का दुष्परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है; अतः साधु लोभग्रस्त न हो। केवली भगवान् का कथन है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभावेशवश असत्य बोल देता है। अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्गन्थ हैं, लोभाविष्ट नहीं। यह है --तीसरी भावना। [4] इसके बाद चौथी भावना यह है-जो साधक भय का दुष्फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए / केवली भगवान का कहना है-भय-प्राप्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है। अतः जो साधक भय का यथार्थ अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग देता है, वही निम्रन्थ है, न कि भयभीत / यह चौथी भावना है। (5) इसके अनन्तर पांचवीं भावना यह है जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अतएव निर्ग्रन्थ को हंसोड़ नहीं होना चाहिए अर्थात् हंसी-मजाक करने वाला न हो। केवली भगवान् का कथन है-- हास्यवश हंसी करनेवाला व्यक्ति असत्य भी बोल देता है। इसलिए जो मुनि हास्य का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका त्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि हंसी-मजाक करने वाला ! यह पांचवीं भावना है। 782. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत मृषावादविरमणरूप द्वितीय सत्यमहाव्रत का काया से सम्यक्स्पर्श (आचरण) करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने एवं उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। भगवन् ! मृषावादविरमणरूप द्वितीय महावत है। विवेचन--द्वितीय महाव्रत की प्रतिज्ञा तथा उसको पंच भावनाएं प्रस्तुत सूत्रत्रय में तीन बातों का मुख्यतया उल्लेख किया गया है---(१) पहले सूत्र में द्वितीय महाव्रत की प्रतिज्ञा का स्वरूप, (2) दूसरे में पांच विभाग करके उसकी पांच भावनाओं का क्रमशः वर्णन, और (3) तीसरे में-उसकी सम्यक् आराधना का उपाय / प्रतिज्ञा का स्वरूप और उसकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए / पांच-भावनाओं का महत्त्व भी पूर्ववत् हृदयंगम कर लेना चाहिए। सत्य-महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं-(१) वक्तव्यानुरूप चिन्तनपूर्वक बोले, (2) क्रोध का परित्याग करे, (3) लोभ का परित्याग करे, (4) भय का परित्याग करे, और (5) हास्य का परित्याग करे। चूर्णिकार ने प्राचीन पाठ परम्परा का कुछ भिन्न एवं भिन्नक्रम का, किन्तु इसी आशय का पाठ प्रस्तुत किया है। तदनुसार संक्षेप में पंच भावनाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं--(१) हास्य 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 284 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org