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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 780-82 केवलो बूया-भयपत्ते भीरू समावदेज्जा मोसं वयणाए / भयं परिजाणति से निग्गंथे, णो य भयभीरुए सिया, चउत्था भावणा। 5) अहावरा पंचमा भावणा-हासं परिजाणति से निग्गंथे, णो' य हासणाए सिया। केवली बूया-हासपत्ते हासी समावदेज्जा मोसं वयणाए / हासं परिजाणति से णिग्गथे, णो य हासणाए सिय त्ति पंचमा भावणा / 782 एताव ताव दोच्चे| महब्बए सम्म काएणं फासिते जाव आणाए आराहिते यावि भवति। दोच्चं भंते ! महब्वयं [मुसावायातो बेरमणं। 780. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं सब प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। (इस सत्य महावत के पालन के लिए) साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा (असत्य) बोले, न हो अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण कराए और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे / इस प्रकार तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मुषावाद का सर्वथा त्याग करे। इस प्रकार मुषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ. आलोचना करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूं, गरुसाक्षी से गर्दा करता हूं, और अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। 781. उस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं [1] उन पांचों में से पहली भावना इस प्रकार है-वक्तव्य के अनुरूप चिन्तन करके बोलता है, वह निम्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निर्गन्थ नहीं / केवली भगवान् कहते हैं—बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अतः वक्तव्य विषय के अनुरूप चिन्तन करके बोलनेवाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं / यह प्रथम भावना है। [2] इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का कटुफल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए / केवली भगवान् कहते हैं---क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं। यही द्वितीय भावना है। 1. 'णो य हासणाए' के बदले पाठान्तर है-'यो य भासणाए', 'णो भासणाए।' 2. एताव ताव (दोच्चे) महम्वए के बदले पाठान्तर हैं-'एतावत्ताव महत्वए', 'एतावता महन्वए' 'एताव महव्यए" एलाव ताव महस्वए, अर्थ प्रायः समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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