________________ प्रथम अध्ययन : बसम उद्देशक : सूत्र 402-4 चर्णिकार ने भी इस विषय में कोई समाधान नहीं दिया, अगर प्राचीनपरम्परा के अनुसार कुछ समाधान दिया भी हो तो आज वह उपलब्ध नहीं है, लेकिन वृत्तिकार इसे आपबादिक सूत्र मानकर कहते हैं'इस प्रकार मांस सूत्र भी समझ लेना चाहिए। मांस का ग्रहण कभी सद्वंद्य की प्रेरणा से, मकड़ी भादि के काटने हर उस असह्य पीड़ा के उपशमनार्थ बाह्य परिभोग में, पसीना आदि होने से, ज्ञानादि में उपकारक होने से उपयोगी देखा गया है। भुज् धातु यहाँ जूते के उपयोग की तरह बाह्य परिभोग के अर्थ में है, खाने के अर्थ में नहीं।' निष्कर्ष यह है कि ये दोनों ही आचार्य मुनि के लिए इसे अभक्ष्य मानते हैं। दशवैकालिक सूत्र (अ० 5) में भी इसी से-~~-मिलती-जुलती दो गाथाएं हैं बहु अट्ठियं पुग्गलं अगिमिसं वा बहुकंटय / अस्थियं तिदुयं बिल्लं उच्छवंडं व सिबलि // 73 // अप्पेसिया भोयणजाए, बहु-उज्सियधम्मिए। देतियं पडिआइरखे न मे कप्पड़ तारिसं // 74 // दोनों का अर्थ स्पष्ट है। दशवकालिक सूत्र के कुछ व्याख्याकारों ने मांस-मत्स्य-शब्दों का लोक-प्रसिद्ध मांस-मस्त्यपरक और कइयों ने वनस्पतिपरक अर्थ किया है। इस सूत्र के चूणिकार इस गाथा का अर्थ मांस (पुद्गल) मस्त्य (अनिमिष) परक करते हैं, वे कहते हैं-साधु को मांस खाना नहीं कल्पता, फिर भी किसी देश, काल और परिस्थिति की अपेक्षा से इस आपवादिक सूत्र की रचना हुयी है। इस सूत्र के टीकाकार हरिभद्रसूरि मांस-परक अर्थ के सिवाय वनस्पतिपरक अर्थ मतान्तर द्वारा स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध टब्बाकार पार्शचन्द्र सूरि ने मूलतः ही वनस्पतिपरक अर्थ किया है / इसलिए पुद्गल या मांस का अर्थ-प्राणिविकार, कलेवर, फल या उसका गूदा, इनमें से कोई हो सकता है / अनिमिष और मत्स्य भी मत्स्य तथा वनस्पति ..दोनों का वाचक हो सकता है। इस प्रकरण का समग्र अनुशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि 'मंस-मच्छ' शब्द द्वयर्थक-दो अर्थवाले हैं। द्वयर्थक शब्द का आशय समझने के लिए वक्ता का (1) सिद्धान्त (2) व्यवहार और उसकी (3) अथ-परम्परा पर विचार करना चाहिए। अगर मात्र शब्द को पकड़कर उसका लोक-प्रचलित अर्थ कर दिया जाय तो वक्ता के मूल सिद्धान्त के साथ अन्याय होगा। आगम के वक्ता (अर्थोपदेष्टा) सर्वज्ञ प्रभु महावीर परम अहिंसावादी व परम कारुणिक थे। उन्होंने मद्य, मत्स्य, मांस जैसे जुगुप्सनीय पदार्थों के सेवन का स्थान-स्थान पर निषेध किया है, न केवल निषेध; बल्कि इनका सेवन-नरक आदि घोर दुर्गति का कारण बताया है, भगवान महावीर ने अपने जीवन-व्यवहार में, या किसी भी गणधर आदि ने कभी इस प्रकार 1. 'एवं मांस सूत्रमपि नेयम् / अस्य चोपावानं क्वचिल्लताम_पशमनार्व--सब्वैद्योपवेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेवादिना ज्ञाना पकारकत्वात्-फलवद् दृष्टम् / मुजिश्चात्र बहिपरिभोगार्थो. नाम्यवहारावों पातिभोगवविति। -आचा. वृत्ति पत्रांक 354 / 2. (क) मंसंबणेष कप्पति साहणं, कंधि देसं कालं पहुच इमं सुत्तमागतं / -दसवै• जिनदास चूणि पृ० 184 (ख) मंसातीण अग्गहरी सति, देसकालगिलागावेक्यमियममवात सुस्त।। -दसर्व० अगस्त्य सिंह चूणि पृ. 118 3. 'महस्मि' 'पुवगतं'-मासम्, 'अनिमिवं' मत्स्य वा 'बहुकण्टकम्', अयं किल कालापेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारातया विधफलामिधाने एते। हारि० टीका पत्र 176 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org