________________ 102 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कम्स हो तो इस फल का जितना गूदा (गिर= सार भाग) है, उतना मुझे दे दो, बीजगुठलियाँ नही। .. भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ अपने बर्तन में से उपयुक्त फल लाकर देने लगे तो जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में वह हो तभी उस प्रकार के फल को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर लेने से मना कर दे--प्राप्त होने पर भी न ले। इतने पर भी वह गृहस्थ हठात्-बलात् साधु के पात्र में डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा (भला-बुरा) कहे, किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए / वहाँ जाकर जीव-जन्तु, काई, लीलण फूलण, गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि से रहित किसी निरवद्य उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सार भाग का उपभोग करे और फेंकने योग्य बीज, गुठलियों एवं कांटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए, वहाँ दग्ध भूमि पर, या अस्थि राशि पर अथवा लोहादि के कूड़े पर, भूमे के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर या ऐसी ही किसी प्रासुक भूमि पर प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन्हें परठ (डाल) दे। विवेचन-अग्राह्य आहार : खाने योग्य कम, फैकने योग्य अधिक---सू० 402 से 404 में ऐसे आहार का उल्लेख किया गया है, जिसमें स्वयं पक जाने पर भी या अग्नि से शस्त्रपरिणत हो जाने पर भी खाने योग्य भाग अल्प रहता है और फैकने योग्य भाग बहुत अधिक रहता है। इसलिए ऐसा आहार प्रासुक होने पर भी अनेषणीय और अग्राह्य है। कदाचित् गृहस्थ ऐसा बहु-उज्झितधर्मी आहार देने लगे तो साधु को उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि रोसा आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / कदाचित् भावुकतावश हठात् कोई गृहस्थ साधु के पात्र में वैसा आहार डाल दे तो उसे उक्त गृहस्थ को कुछ भी उपालम्भ या दोष दिये बिना चुपचाप एकान्त में जाकर उसमें से सार भाग का उपभोग करके फैंकने योग्य भाग को अलग निकाल कर एकान्त निरवद्य जीव जन्तु-रहित स्थान देखभाल एवं साफ करके वहाँ डाल देना चाहिए। ऐसे बहु-उज्झितधर्मी आहार में यहाँ चार प्रकर के पदार्थ बताए हैं--(१) ईख के टुकड़े और उसके विविध अवयव, (2) मूंग, मोठ चौले आदि की हरी फलियाँ, (3) ऐसे फल जिनमें बीज और गुठलियां बहुत हों-जैसे तरबूज, ककड़ी, सीताफल, पपीता, नीबू, बेल, अनार, आदि, (4) ऐसे फल जिसमें कांटे अधिक हों, जैसे अनन्नास आदि / ' 1. मूल सूत्र में 'बह अदिव्यं मंसं मच्छं वा बहकंटगं' इन पदों को देख कर सहसा यह भ्रम हो जाता है कि क्या जैन साधु, जो षटकाय के रक्षक हैं, पंचेन्द्रिय-वध से निष्पन्न तथा नरक-गमन के कारण मांस और मत्स्य का ग्रहण और सेवन कर सकते हैं? भले ही वह अग्नि में पका हुआ हो, संस्कारित हो? आचारांग चूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों इस सूत्र की व्याख्या साधारणतः मांस-मत्स्यपरक करते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org