________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेचन-इन सब सूत्रों में बन्ध और मोक्ष तथा उनके कारणों से सम्बन्धित परम बोध दिया गया है। ११२वें सूत्र में जन्म और वृद्धि को देखने की प्रेरणा दी गयी है, उसका तात्पर्य यह है कि जिनवाणी के आधार पर वह अपने पूर्वजन्मों के विषय में चिन्तन करे कि मैं एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में तथा नारक, तिर्यंच, देव आदि योनियों में अनेक बार जन्म लेकर फिर यहाँ मनुष्य-लोक में आया हूँ। उन जन्मों में मैंने कितने-कितने दुःख सहे होंगे ? साथ ही वह यह भी जाने कि मैं कितनी निर्जरा और प्रचुर पुण्यसंचय के फलस्वरूप एकेन्द्रिय से विकास करते-करते इस मनुष्य-योनि में आया हूँ, कितनी पुण्यवृद्धि की होगी, तब मनुष्य-लोक में भी आर्य क्षेत्र, उतम कुल, पंचेन्द्रिय पूर्णता, उत्तम संयोग, दीर्घ-आयुष्य, श्रेष्ठ संयमी जीवन आदि पाकर इतनी उन्नति कर सका हूँ। इस सूत्र का दूसरा प्राशय यह भी है कि संसार में जीवों के जन्म और उसके साथ लगे हए अनेक दुःखों को तथा बालक, कुमार, युवक और वृद्ध रूप जो वृद्धि विकास हुना है, उस बीच आने वाले शारीरिक तथा मानसिक दुःखों/संघर्षों को देख / अपने अतीत के अनेक जन्मों की तथा विकास की श्रृंखला को देखना ही चिन्तन की गहराई में उतर कर जन्म और वृद्धि को देखना है / अतीत के अनेक जन्मों का, उनके कारणों और तज्जनित दुःखों एवं विकास-क्रम का चिन्तन करते-करते उन पर ध्यान केन्द्रित करने से संमूढता दूर हो जाती है और अपने पूर्वजन्मों का स्मरण (जाति-स्मरण) हो जाता है।' जब व्यक्ति अपने इस जीवन के 50-60 वर्षों के घटनाचक्रों को स्मृति पथ पर ले आता है, तब यदि प्रयत्न करे और बुद्धि संमोहित न हो तो पूर्वजन्मों की स्मृतियां भी उभर सकती हैं / पूर्वजन्म की स्मृति क्यों नहीं होती? इसके विषय में कहा गया है जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो / तेण दुक्खेण संमूढो, न सरइ जाइमप्पणो // जैसे मृगापुत्र को संयमी श्रमण को अनिमिष दृष्टि से देखते हुए, शुद्ध अध्यवसाय के कारण मोह दूर होते ही जाति-स्मरण ज्ञान हुआ और वह अपने पूर्वजन्म को देखने लगा / फलतः विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त होकर उसने अपने माता-पिता से प्रव्रज्या के लिए अनुमति मांगी। साथ ही वह अपने पिछले जन्मों में उपभुक्त विषयभोगों के कटु एवं दुःखद परिणाम, शरीर और भोगों की अनित्यता, अशुचिता (गंदगी), मनुष्य जन्म की असारता, व्याधिग्रस्तता, जरा-मरण-ग्रस्तता आदि का वर्णन करने लगा था। उसने अपने माता-पिता से कहा था माणुसते असारम्मि वाही-रोगाण आलए / जरामरमघत्थंमि खणं पि न रमामऽहं // 15 // जम्म दुक्ख जरा दुक्खं रोगाणि मरणाणि य / अहो दक्खो हसंसारो, जत्य कीसति जतवो ॥१६॥--उत्तरा० अ० 19 इससे स्पष्ट है कि अपने पिछले जन्मों और विकास-यात्रा का अनुस्मरण करने से साधक को जन्मजरा आदि के साथ लगे हुए अनेक दुःखों, उनके कारणों और उपादानों का ज्ञान हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org