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________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्द शक : सूत्र 112-117 112. हे आर्य! तू इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख / तू प्राणियों (भूतग्राम) को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर / इससे त्रैविद्य (तीन विद्याओं का ज्ञाता) या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर ( समत्वदर्शी हो जाता है ) / समत्वदर्शी पाप (हिंसा आदि का प्राचरण) नहीं करता। 113. इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश (रागादि बन्धन) है, उसे तोड़ डाल; क्योंकि ऐसे लोग (काम-भोगों की लालसा से, उनकी प्राप्ति के लिए) हिंसादि पापरूप प्रारंभ करके जीते हैं और प्रारंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक (उभय) में शारीरिक, मानसिक काम-भोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा प्रारंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन (अनुभव) करते रहते हैं। ऐसे काम-भोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (ग्रासक्ति रूप कर्मों की जड़ें) बार-बार सींची जाने से वे पुनः-पुनः जन्म धारण करते हैं / 114. वह (काम-भोगासक्त मनुष्य) हास्य-विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल-अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है। 115. इसलिए अति विद्वान (उत्तम ज्ञानी) परम-मोक्ष पद को जान कर (हिंसा आदि में नरक आदि का अातंक-दुःख देखता है) जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप (हिंसा आदि पाप कर्म का आचरण) नहीं करता। हे धीर ! तू (इस अातंक-दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (साधक) (तप और संयम द्वारा रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी (कर्मरहित सर्वदर्शी) हो जाता है। 116. वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है / वह (निष्कर्मदर्शी) मुनि भय को देख चुका है (अथवा उसने मोक्ष पथ को देख लिया है)। वह (आत्मदर्शी मुनि) लोक ( प्राणि-जगत ) में परम (मोक्ष या उसके कारण रूप संयम) को देखता है। वह विविक्त--(राग-द्वेष रहित शुद्ध) जीवन जीता है। वह उपशान्त, (पांच समितियों से) समित (सम्यक् प्रवृत्त) (ज्ञान आदि से) सहित (समन्वित) होता / (अतएव) सदा संयत (अप्रमत्त-यतनाशोल) होकर, (पण्डित-) मरण की आकांक्षा करता हुआ (जीवन के अन्तिम क्षण तक) परिव्रजन-विचरण करता है। (इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध किया है। 117. (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर। इस (सत्य) में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण (क्षय) कर डालता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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