________________ 94 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध :. 'लोक-संज्ञा' का भावार्थ यों है-प्राणिलोक की आहारादि चार संज्ञाएँ अथवा दस संज्ञाएँ / वैदिक धर्मग्रन्थों में वित्तषणा, कामैषणा (पुत्रषणा) और लोकैषणा रूप जो तीन एषणाएँ बताई हैं, वे भी लोकसंज्ञा हैं / लोकसंज्ञा का संक्षिप्त अर्थ 'विषयासक्ति' भी हो सकता है। ... 'लोक' से यहाँ तात्पर्य-रागादि मोहित लोक या विषय-कषायलोक से है। 'परक्कमेज्जासि' से संयम, तप, त्याग, धर्माचरण आदि में पुरुषार्थ करने का निर्देश है। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक बंध-मोक्ष-परिज्ञान 112. जाति च बुढि च इहज्ज पास, भूतेहि जाण पडिलेह सातं / तम्हाऽतिविज्ज परमं ति णच्चा सम्मत्तदंसी ण करेति पावं // 4 // 113. उम्मुच पासं इह मच्चिएहि, आरंभजीवी उभयाणपस्सी। कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरति गम्भं // 5 // 114. अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मणति / अलं बालस्स संगणं, वेरं वड्ढेति अप्पणो // 6 // 115. तम्हाऽतिविज्जं परमं ति गच्चा, आयंकदंसी ण करेति पावं / अग्गं च मूलं च विगिच धोरे, पलिछिदियाण णिक्कम्मदंसी // 7 // 116. एस मरणा पमुच्चति, से हु दिट्ठभये मुणी। लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिते सहिते सदा जते कालकंखी परिव्वए। बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। 117. सच्चमि धिति कुव्वह / एत्थोवरए मेहावी सवं पावं कम्मं झोसेति / 1. 'अतिविज्ज' के स्थान पर चूमि में “तिविज्जो' पाठ है जिसका अर्थ है-तीन विद्याओं का ज्ञाता। 2. आरंभजीवी उमयाणुपस्सो' पाठ के स्थान पर 'आरम्भजीवी तु भयाणुपस्सी' पाठ चूणि में मिलता है, जिसका अर्थ है-जो व्यक्ति महारम्भी-महापरिग्रही है-वह अपने समक्ष वध, बन्ध, निरोध, मृत्यु प्रादि का भय देखता है। 3. भदन्त नागार्जुनीय वाचनानुसार यहाँ पाठ है-'मूलं च आगं च वियेत्त वीर, कम्मासवा वेति विमोक्खणं च / अविरता अस्सवे जीवा, विरता णिज्जरेंति।' अर्थात्-“हे वीर ! मूल और अग्र का विवेक * कर, कमों के आश्रव (प्रास्रव) और कर्मो से घिमोक्षण (मुक्ति) का भी विवेक कर / अविरत जीव प्रास्त्रवों में रत रहते हैं, 'विरत कर्मों की निर्जरा करते हैं।" 4, 'विटुमये के स्थान पर 'दिट्ठवहे' और 'दिठ्ठपहे' पाठान्तर मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org