SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 716
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठें अज्झयणं 'पाएसणा' [पढमो उद्देसओ] पात्रं वणा : षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक पात्र के प्रकार एवं मर्यादा 588. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा पायं एसित्तए, से ज्जं पुण पायं जाणेज्जा, तंजहालाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे णिग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारेज्जा, णो रितियं / 588. संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो वह जिन पात्रों को जाने (स्वीकार करे) वे इस प्रकार हैं-तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है / जो निग्रन्थ निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए जहां भगवान महावीर ने लकड़ी के, तुम्बे के और मिट्टी के पात्र रखने का विधान किया है, वहां शाक्य-श्रमणों के लिए तथागतबुद्ध ने लकड़ी के पात्र का निषेध कर, लोहे का और मिट्टी का पात्र रखने का विधान किया है। विनयपिटक की घटना से ज्ञात होता है कि बौद्ध भिक्षु पहले मिट्टी का पात्र भी रखते थे, किन्तु एक घटना के पश्चात् बुद्ध ने लकड़ी के पात्र का निषेध कर दिया; वह घटना संक्षेप में इस प्रकार है एक बार राजगृह के किसी श्रेष्ठी ने चंदन का एक सुन्दर, मूल्यवान् पात्र बनवाकर बांस के सिरे पर ऊंचा टांग कर यह घोषणा करवा दी कि- "जो श्रमण, ब्राह्मण अर्हत ऋद्धिमान हो, वह इस पात्र को उतार ले।" उस समय मौद्गत्यायन और पिंडोल भारद्वाज पात्र-चीवर लेकर राजगह में भिक्षार्थ आये। पिंडोल भारद्वाज ने आकाश में उड़कर वह पात्र उतार लिया, और राजगृह के तीन चक्कर किये। इस प्रकार चमत्कार से प्रभावित बहत-से लोग हल्ला करते हए तथागत के पास पहुंचे। तथागत बुद्ध ने पूरी घटना सुनी तो उन्हें बहुत खेद हुआ। भारद्वाज को बुलाकर भिक्षु-संघ के सामने फटकारते हुए कहा--'भारद्वाज ! यह अनुचित है, श्रमण के अयोग्य है। एक तुच्छ लकड़ी के वर्तन के लिए कैसे तू गृहस्थों को अपना ऋद्धि, प्रातिहार्य दिखायेगा? फिर बुद्ध ने भिक्षुसंघ को आज्ञा दी, उस पात्र को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर भिक्षुओं को अंजन पीसने के लिये दे दो। इसी संदर्भ में भिक्षुसंघ को सम्बोधित करते हुए कहा—भिक्षु को सुवर्णमय, रोप्य, मणि, कांस्य, स्फटिक, कांच, तांबा, सीसा आदि का पात्र नहीं रखना चाहिए / भिक्षुओ ! लोहे के और मिटटी के दो पात्रों की अनुज्ञा देता है। - विनयपिटक, चुल्लवग्ग खुद्दक वत्थुखंध (5/1/10 पृ० 422-23) इसीप्रकरण में एक जगह लकड़ी के पात्र का निषेध करके लकड़ी के भांडों की अनुमति दी है। —पृष्ठ 446 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy