________________ पाषणा: षष्ठ अध्ययन प्राथमिक * आचारांगसूत्र (द्विश्रत०) के छठे अध्ययन का नाम पात्रषणा है। - जब तक साधक अभिग्रहपूर्वक दढ़मनोबल के साथ 'कर-पात्र' की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक निर्ग्रन्थ साधु के लिए निर्दोष आहार-पानी ग्रहण एवं सेवन करने के लिए पात्र की आवश्यकता रहती है। किन्तु सोधु किस प्रकार के, कैस, कितनेकितने मूल्य के पात्र रखे ? जिससे उसकी उन पर ममता-मूर्छा न जागे / नही पात्रग्रहण में उद्गमादि एषणादोष लगे, और न ही पात्रों का उपयोग करने में रागादि से युक्त अंगार, धूम आदि दोष लगें; इन सब दृष्टियों से पात्रषणा अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है।" - 'पात्र' शब्द के दो भेद हैं-द्रव्यपात्र और भावपात्र। भावपात्र तो साधु आदि हैं। उनकी आत्मरक्षा या उनकी संयम-परिपालना के लिए द्रव्यपात्र का विधान है। र द्रव्यपात्र हैं-एकेन्द्रियादि शरीर से काष्ट आदि से निष्पन्न पात्र। इस अध्ययन में द्रव्य-पात्र का वर्णन ही अभीष्ट है। - इस अध्ययन में पात्र की गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगैषणा इन-तीनों पात्रषणाओं __ की दृष्टि से वर्णन है इसलिए इसका सार्थक नाम-'पात्रैषणा' रखा गया है। इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं-प्रथम उद्देशक में पात्रग्रहणविधि का निरूपण है, जबकि द्वितीय उद्देशक में मुख्यतया पात्र धारणविधि का प्रतिपादन हैं। 2 इस अध्ययन में पात्रषणा सम्बन्धी वर्णन प्रायः 'वस्त्रैषणा' -अध्ययन के क्रमानुसार किया गया है। - यह अध्ययन सूत्र 588 से प्रारंभ होकर 606 पर समाप्त होता है। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर 2. (क) आचासंग नियुक्ति गा० 315 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org