________________ आचारांग सत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध को सहन कैसे करेगा? यह तो उसके गुप्त शत्रु हैं, अत: वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह न तो भोग-रति को सहन करेगा और न संयम-अरति को। इसलिए वह इन दोनों वृत्तियों में ही अविमनस्क अर्थात् शांत एवं मध्यस्थ रहकर उनसे विरक्त रहता है। सूत्र 99. में पाँच इन्द्रियविषयों में प्रथम व अन्तिम विषय का उल्लेख करके मध्य के तीन विषय उसी में अन्तनिहित कर दिये हैं। इन्हें क्रमशः यों समझना चाहिए-शब्द, रूप, रस गंध और स्पर्श / ये कभी मधुर-मोहक रूप में मन को ललचाते है तो कभी कटु अप्रिप रूप में आकर चित्त को उद्वेलित भी कर देते हैं / साधक इनके प्रिय-अप्रिय, अनुकुल-प्रतिकूल-दोनों प्रकार के स्पर्शों के प्रति समभाव रखता है। ये विषय ही तो असंयमी जीवन में प्रमाद के कारण होते हैं, अतः इनसे निविग्न-उदासीन रहने का यहाँ स्पष्ट संकेत किया है। मोणं—मौन के दो अर्थ किये जाते हैं, मौन-मुनिका भाव--संयम, अथवा मुनि-जीवन का मूल आधार ज्ञान / ' धुणे कम्मसरीरगं से तात्पर्य है, इस प्रौदारिक शरीर को धुनने से, क्षीण करने से तब तक कोई लाभ नहीं, जब तक राग द्वष जनित कर्म (कार्मण) शरीर को क्षोण नहीं किया जाये / साधना का लक्ष्य कर्म-शरीर (आठ प्रकार के कर्म) को क्षीण करना ही है। यह प्रौदारिक शरीर तो साधना का साधन मात्र है। हाँ, संयम के साधनभूत शरीर के नाम पर वह इसके प्रति ममत्व भी न लाये, सरस-मधुर अाहार से इसकी वृद्धि भी न करें, इस बात का स्पष्ट निर्देश करते हुए कहा है-तं लुहं सेवंति-वह साधक शरीर से धर्मसाधना करने के लिए रुखा-सूखा, निर्दोष विधि से यथाप्राप्त भोजन का सेवन करे। टीका आदि में समत्तदसिणो के स्थान पर सम्मत्तदसिणो पाठ उपलब्ध है। टीकाकार शीलांकाचार्य ने इसका पहला अर्थ 'समत्वदर्शी तथा वैकल्पिक दूसरा अर्थ -सम्यक्त्वदर्शी किया है। यहाँ नीरस भोजन के प्रति 'समभाव' का प्रसंग होने से समत्वदर्शी अर्थ अधिक संगत लगता है। वैसे 'सम्यक्त्वदर्शी' में भी सभी भाव समाहित हो जाते हैं। वह सम्यक्त्वदर्शी वास्तव में संसार-समुद्र को तैर चुका है / क्योंकि सम्यक्त्व की उपलब्धि संसारप्रवाह को तैरने की निश्चित साक्षी है / बंध-मोक्ष-परिज्ञान 100. दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाति वत्तए। 101. एस वीरे पसंसिए अच्चेति लोगसंजोगं / एस णाए पवुच्चति / जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इति कम्म परिण्णाय सव्वसो। 1. अभि० राजेन्द्र, भाग 6, पृ० 449 पर इसी सन्दर्भ में मोण का अर्थ वचन-संयम भी किया है 'वाचः संयमने / ' तथा सर्वज्ञोक्तप्रवचनरूप ज्ञान (प्राचा० 5 / 2) सम्यक्चारित्र (उत्त० 15) समस्त सावद्य योगों का त्याग (आचा० 5 / 3) मौनव्रत (स्थाना० 5 / 1) आदि अनेक अर्थ किये हैं / 2. प्राचारांग टीका पत्रांक 130 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org