________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 98-99 99. सहे फासे अधियासमाणे णिविद दि इह जीवियस्स / मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं / पंतं लहं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो।' एस ओघंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / 98. वीर साधक अरति (संयम के प्रति अरुचि) को सहन नहीं करता, और रति (विषयों की अभिचि) को भी सहन नहीं करता / इसलिए वह वीर इन दोनों में ही अविमनस्क-स्थिर-शान्तमना रह कर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। 99. मुनि (रति-अरति उत्पन्न करने वाले मधुर एवं कटु) शब्द (रूप, रस गन्ध,) और स्पर्श को सहन करता है / इस असंयम जीवन में होने वाले आमोद आदि से विरत होता है। मुनि मौन (संयम अथवा ज्ञान) को ग्रहण करके कर्म-शरीर को धुन डालता है, (प्रात्मा से दूर कर देता है) ___ वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे-सूखे (नीरस आहार) का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं। वह (समदर्शी) मुनि, जन्म-मरणरूप संसार प्रवाह को तैर चुका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-उक्त दो सूत्रों में साधक को समत्वदर्शी शांत और मध्यस्थ बनने का प्रतिपादन किया गया है। रति और अरति--यह मनुष्य के अन्तःकरण में छुपी हुई दुर्बलता है। राग-द्वेष-वृत्ति के गाढ या सूक्ष्म जमे हुए संस्कार ही मनुष्य को मोहक विषयों के प्रति आकृष्ट करते हैं, तथा प्रतिकूल विषयों का सम्पर्क होने पर चंचल बना देते हैं। ___ यहाँ अरति-का अर्थ है संयम-साधना में, तपस्या, सेवा, स्वाध्याय, आदि के प्रति उत्पन्न होने वाली अरुचि एवं अनिच्छा / इसप्रकार की अरुचि संयम-साधना के लिए घातक होती है। रति-का अर्थ है--शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि मोहक विषयों से जनित चित्त की प्रसन्नता/रुचि या आकर्षण / __ उक्त दोनों ही वृत्तियों से-अरति और रति से, संयम-साधना खंडित और भ्रष्ट हो सकती है अतः वीर, पराक्रमी, इन्द्रिय-विजेता साधक अपना ही अनिष्ट करने वाली ऐसी वृत्तियों 1. सम्मत्तसिणो - पाठान्तर भी है। 2. उत्तरा० अ० 5 की टीका / देखें अभि० राजेन्द्र भाग 6 पृ० 467 / यहीं पर आगमों के प्रसंगानुसारी रति शब्द के अनेक अर्थ दिये हैं, जैसे -- मैथुन (उत्त० 14) स्त्री-सुख (उत्त० 16) मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति से उत्पन्न प्रसन्नता (दर्शन० 1 तत्त्व) क्रीड़ा (दशव० 1) मोहनीय कर्मोदय जनित मानन्द रूप मनोधिकार (धर्म०२ अधि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org