________________ 74 आगारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे / वास्तव में उसे ही मतिमान (बुद्धिमान्) ज्ञानी पुरुष कहा गया है-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में ममत्वबुद्धि का त्याग तथा लोक-संज्ञा से मुक्त होने का निर्देश किया है / ममत्व-बुद्धि-मूर्छा एवं प्रासक्ति, बन्धन का मुख्य कारण है। पदार्थ के सम्बन्ध मात्र से न तो चित्त कलुषित होता हैं, और न कर्म बन्धन होता है। पदार्थ के साथसाथ जब ममत्वबुद्धि जुड़ जाती है तभी वह पदार्थ परिग्रह कोटि में आता है और तभी उससे कर्मबंध होता है। इसलिए सूत्र में स्पष्ट कहा है-जो ममत्वबुद्धि का त्याग कर देता हैं, वह सम्पूर्ण ममत्व अर्थात् परिग्रह का त्याग कर देता है। और वही परिग्रह-त्यागी पुरुष वास्तव में सत्य पथ का द्रष्टा है, पथ का द्रष्टा-सिर्फ पथ को जानने वाला नहीं, किन्तु उस पथ पर चलने वाला होता है—यह तथ्य यहाँ संकेतित है। लोक को जानने का प्राशय है -संसार में परिग्रह तथा हिंसा के कारण ही समस्त दुःख व पीड़ाएँ होती हैं तथा संसार परिभ्रमण बढ़ता है, यह जाने / लोगसम्णं--लोक-संज्ञा के तीन अर्थ ग्रहण किये गये हैं, (1) आहार, भय आदि दस प्रकार की लोक संज्ञा / (2) यश:कामना, अहंकार, प्रदर्शन की भावना, मोह, विषयाभिलाषा, विचार-मूढता, गतानुगतिक वृत्ति, आदि / (3) मनगढन्त लौकिक रोतियाँ-जैसे श्वान यक्ष रूप है, विप्र देवरूप है, अपुत्र की गति नहीं होती आदि / इन तीनों प्रकार को संज्ञाओं/वृत्तियों का त्याग करने का उद्देश्य यहाँ अपेक्षित है। 'लोक संज्ञाष्टक' में इस विषय पर विस्तृत विवेवन करते हुए प्राचार्यों ने बताया है लोकसजोज्झितः साधुः परब्रह्म समाधिमान् / सुखमास्ते गतद्रोह-ममता-यत्सरज्वरः // 8 // - शुद्ध प्रात्म-स्वरूप में रमणरूप समाधि में स्थित, द्रोह, ममता (द्वेष एवं राग) मात्सर्य रूप ज्वर से रहित, लोक संज्ञा से मुक्त साधु संसार में सुखपूर्वक रहता है। अरति-रति-विवेक 98. गारति सहतो वीरे, वीरे णो सहती रति / ५जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे ण रज्जति // 3 // 1. (क) दस संज्ञाएँ इस प्रकार है-(१) आहार संज्ञा, (2) भयसंज्ञा (3) मथुन संज्ञा (4) परिग्रह संज्ञा (5) क्रोध संज्ञा (6) मान संज्ञा (7) मापा सज्ञा (8) लोभ संज्ञा (9) प्रोष संज्ञा (10) लोक संज्ञा। --प्रज्ञापना सूत्र, पद 10 (ख) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 129 2. देखें अभि. राजेन्द्र, भाग 6, पृ० 741 3. अभि० राजेन्द्र भाग 6, पृ० 741 'लोग सपणा' शब्द / 4. सहते, सहति-पाठान्तर है। 5. चूणि में पाठान्तर-जम्हा अविमणो वीरो तम्हादेव विरज्जते-अर्थात् वीर जिससे अविमनस्क होता है, उसके प्रति राग नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org