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________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 97 73 रहते हैं / जल में मिट्टी (पृथ्वी) का भी अंश रहता है अतः एक जलकाय की हिंसा से छहों काय की हिंसा होती है। ___ 'छसु' शब्द से पांच महाव्रत व छठा रात्रि-भोजन-विरमणव्रत भी सूचित होता है। जब एक अहिंसा व्रत खण्डित हो गया तो सत्य भी खण्डित हो गया, क्योंकि साधक ने हिंसात्याग की प्रतिज्ञा की थी। प्रतिज्ञा-भंग असत्य का सेवन है। जिन प्राणियों की हिंसा की जाती है उनके प्राणों का हरण करना चोरी है। हिंसा से कर्म-परिग्रह भी बढ़ता है तथा हिंसा के साथ सुखाभिलाष-काम-भावना उत्पन्न हो सकती है / इस प्रकार टूटी हुई माला के मनकों की तरह एक व्रत टूटने पर सभी छहों व्रत टूट जाते हैं-भग्न हो जाते हैं। __ एक पाप के सेवन से सभी पाप आ जाते हैं-'छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति' के अनुसार एक छिद्र होते ही अनेक अवगुण आ जायेंगे, अतः यहाँ प्रस्तुत सूत्र में अहिंसा व्रत की सम्पूर्ण अखण्ड-निरतिचार साधना का निर्देश किया गया है। पुढो वयं--के दो अर्थ हैं- (1) विविध व्रत, और (2) विविध गति-योनिरूप संसार / यहाँ दोनों ही अर्थों की संगति बैठती है। एक व्रत का भंग करने वाला पृथक्व्रतों को अर्थात् अन्य सभी व्रतों को भंग कर डालता है, तथा वह अपने अति प्रमाद के ही कारण पृथक्-पृथक गतियों में, अर्थात् अपार संसार में परिभ्रमण करता है।' 97. पडिलेहाए जो णिकरणाए / एस परिण्णा पवुच्चति कम्मोवसंती। जे ममाइयमति जहाति से जहाति ममाइतं / से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स णस्थि ममाइतं / तं परिण्णाय मेहावी विदित्ता लोगं, वंता लोगसणं, से मतिमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि। 97. यह जानकर (परिग्रह के कारण प्राणी संसार में दुखी होता है ) उसका (परिग्रह का) संकल्प त्याग देवे। यही परिज्ञा/विवेक कहा जाता है। इसी से (परिग्रहत्याग से) कर्मों की शान्ति-क्षय होता है / जो ममत्व-बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व (परिग्रह) का त्याग करता है। वही दृष्ट-पथ | (मोक्ष-मार्ग को देखने वाला) मुनि है, जिसने ममत्व का त्याग कर दिया है। यह (उक्त दृष्टि बिन्दु को) जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने / लोक१. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 127-128 / 2. (क) वयं-शब्द को व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-"वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः यस्मिन् स वयः संसारः / " -प्राचा० शीला. टीका पत्रांक 128 (ख) ऐतरेय ब्राह्मण में भी 'वयः' शब्द गति अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। -ऐत. अ० 12 ख 80 3. दिट्ठभए -पाठान्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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