________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य सकता है / वह सुख का अभिलाषी, बार-बार सुख की इच्छा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, (व्यथित होकर) मूढ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह (मूढ) अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी अत्यन्त दुःख भोगते हैं। विवेचन--पूर्व उद्देशकों में, परिग्रह तथा काम की आसक्ति से ग्रस्त मनुष्य की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ उसी संदर्भ में कहा है-आसक्ति से होने वाले दुःखों को समझकर साधक किसी भी प्रकार का पाप कार्य न करे। पाप कर्म न करने के संदर्भ में टीकाकार ने प्रसिद्ध अठारह पापों का नाम-निर्देश किया है, तथा बताया है, ये तो मुख्य नाम हैं, वैसे मन के जितने पापपूर्ण संकल्प होते हैं, उतने ही पाप हो सकते हैं। उनकी गणना भी संभव नहीं है। साधक मन को पवित्र करले तो पाप स्वयं नष्ट हो जायें / अतः वह किसी भी प्रकार का पाप न करें, न करवाएँ, अनुमोदन न करने का भाव भी इसी में अन्तनिहित है। सूत्र 96 में एक गूढ़ प्राध्यात्मिक पहेली को स्पष्ट किया है। संभव है; कदाचित् कोई साधक प्रमत्त हो जाय', और किसी एक जीव-निकाय की हिंसा करे, अथवा जो असंयत हैंअन्य श्रमण या परिव्राजक हैं, वे किसी एक जीवकाय की हिंसा करें तो क्या वे अन्य जीव-कायों की हिंसा से बच सकेंगे? इसका समाधान दिया गया है-'छसु अन्गयरम्मि कप्पति' एक जीवकाय की हिंसा करने वाला छहों काय को हिंसा कर सकता है। भगवान महावीर के समय में अनेक परिव्राजक यह कहते थे कि-'हम केवल पीने के लिए पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते।' गैरिक व शाक्य आदि श्रमण भी यह कहते थे कि-'हम केवल भोजन के निमित्त जीवहिंसा करते हैं, अन्य कार्य के लिए नहीं। सम्भव है ऐसा कहने वालों को सामने रखकर पागम में यह स्पष्ट किया गया है कि-- जब साधक के चित्त में किसी एक जीवकाय की हिंसा का संकल्प हो गया तो वह अन्य जीवकाय की हिंसा भी कर सकता है, और करेगा ! क्योंकि जब अखण्ड अहिंसा की चित्त धारा खण्डित हो चुकी है, अहिंसा की पवित्र चित्तवृत्ति मलिन हो गई है, तो फिर यह कैसे हो सकता है कि एक जीवकायको हिसा करे और अन्य के प्रति मेत्री या करुणा भाव दिखाए ? दूसरा कारण यह भी है कि -- ___ यदि कोई जलकाय की हिंसा करता है, तो जल में वनस्पति का नियमतः सद्भाव है, जलकाय की हिंसा करने वाला वनस्पतिकाय की हिंसा भी करता ही है। जल के हलन-चलनप्रकम्पन से वायुकाय की भी हिंसा होती है, जल और वायुकाय के समारंभ से वहाँ रही हुई अग्नि भी प्रज्ज्वलित हो सकती है तथा जल के आश्रित अनेक प्रकार के सूक्ष्म त्रस जीव भी 1. "सिया कयाइ से इति असजतस्स नि सो पत्तसंजतस्स वा---प्राचा० चूणि (जम्बू० पृ० 28) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org