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________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 94-96 ___ क्या लाभ है ! जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह भी बाल-अज्ञानी है। अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता 1-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में हिंसा-जन्य चिकित्सा का निषेध है। पिछले सूत्रों में काम (विषयों) का वर्णन आने से यहाँ यह भी संभव है कि काम-चिकित्सा को लक्ष्य कर ऐसा कथन किया है। काम-वासना की तृप्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार की औषधियों का (वाजीकरणउपवृहण आदि के लिए) सेवन करता है, मरफिया आदि के इन्जेक्शन लेता है, शरीर के अवयव जीर्ण व क्षीणसत्व होने पर अन्य पशुओं के अंग-उपांग-अवयव लगाकर काम-सेवन की शक्ति को बढ़ाना चाहता है। उनके निमित्त वैद्य-चिकित्सक अनेक प्रकार की जीवहिंसा करते हैं। चिकित्सक और चिकित्सा कराने वाला दोनों ही इस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहाँ पर साधक के लिए इस प्रकार की चिकित्सा का सर्वथा निषेध किया गया है। इस सूत्र के सम्बन्ध में दूसरा दृष्टिकोण व्याधि-चिकित्सा (रोग-उपचार) का भी है। श्रमण की दो भूमिकाएँ हैं-(१) जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। जिनकल्पी श्रमण संघ से अलग स्वतन्त्र, एकाकी रहकर साधना करते थे। वे अपने शरीर का प्रतिकर्म अर्थात सार-संभाल, चिकित्सा आदि भी नहीं करते-कराते। (2) स्थविरकल्पी श्रमण संघीय जीवन जीते हैं। संयम-यात्रा का समाधिपूर्वक निर्वाह करने के लिए शरीर को भोजन. निर्दोष औषधि आदि से साधना के योग्य रखते हैं। किन्तु स्थविरकल्पी श्रमण भी शरीर के मोह में पड़कर व्याधि आदि के निवारण के लिए सदोष-चिकित्सा का, जिसमें जीव-हिसा होती हो, प्रयोग न करे / यहाँ पर इसी प्रकार की सदोष-चिकित्सा का स्पष्ट निषेध किया गया है। // पंचम उद्देशक समाप्त // छ8ो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक सर्व अवत-विरति 95. से तं संबुज्नमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्म णेव कुज्जा ण कारवे / 96. सिया तत्थ एकयरं विप्परामुसत्ति छसु अण्णयरम्मि कप्पत्ति / सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विष्परियासमुवेति / सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वति जसिमे पाणा पव्वहिता। 95. वह (साधक) उस (पूर्वोक्त विषय) को सम्यकप्रकार से जानकर संयम साधना में समुद्यत हो जाता है। इसलिए वह स्वयं पाप कर्म न करें, दूसरों से न करवाएँ (अनुमोदन भी न करें)। 96. कदाचित् (वह प्रमाद या अज्ञानवश) किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो बह छहों जीव-कायों में से (किसी का भी या सभी का) समारंभ कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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