________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कग्ध गई। सार्थवाह अपने आय-व्यय का हिसाब जोड़ने और स्वर्णमुद्राएँ गिनने में इतना दत्तचित्त था कि, उसने द्वार पर खड़ी सुन्दरी गणिका की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। ... मगधसेना का अहंकार तिलमिला उठा / दाँत पीसती हुई उदास मुख लिए वह सम्राट जरासंध के दरबार में गई / जरासंध ने पूछा-सुन्दरी ! तुम उदास क्यों हो ? किसने तुम्हारा अपमान किया ? मगधसेना ने व्यंग्यपूर्वक कहा-उस अमर ने ! . कौन अमर ? -जरासंध ने विस्मयपूर्वक पूछा। धन सार्थवाह ! वह धन को चिन्ता में, स्वर्ण-मुद्राओं की गणना में इतना बेभान है कि उसे मेरे पहुँचने का भी भान नहीं हुआ / जब वह मुझे भी नहीं देख पाता तो वह अपनी मृत्यु को कैसे देखेगा ? वह स्वयं को अमर जैसा समझता है।' अर्थ-लोलुप व्यक्ति की इसी मानसिक दुर्बलता को उद्घाटित करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-वह भोग एवं अर्थ में अत्यन्त आसक्त पुरुष स्वयं को अमर की भांति मानने लगता है और इस घोर अासक्ति का परिणाम प्राता है--प्रार्तता-पीड़ा, अशान्ति और क्रन्दन / पहले भोगप्राप्ति की आकांक्षा में क्रन्दन करता है, रोता है, फिर भोग छूटने के शोक---(वियोग चिन्ता) में क्रन्दन करता है। इस प्रकार भोगासक्ति का अन्तिम परिणाम क्रन्दन-रोना ही है। बहमायो शब्द के द्वारा-क्रोध, मान, माया और लोभ चारों कषायों का बोध अभिप्रेत है। क्योंकि अव्यवस्थित चित्तवाला पुरुष कभी माया, कभी क्रोध, कभी अहंकार और कभी लोभ करता है। वह विक्षिप्त-पागल की तरह आचरण करने लगता है। सदोष-चिकित्सा-निषेध 94. से तं जाणह जमहं बेमि / तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छत्ता भेत्ता लपित्ता विलुपिता उद्दवइत्ता 'अकडं करिस्सामि' त्ति मण्णमाणे, जस्स वि य णं करेइ / अलं बालस्स संगेणं, जे वा से कारेति वाले। ण एवं अणगारस्स जामति ति बेमि / // पंचमो उद्देसओ समतो। 54. तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा-पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा (काम-चिकित्सा) में प्रवृत्त होते हैं। वह (काम-चिकित्सा के लिए) अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण-वध करता है। 'जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूगा,' यह मानता हुग्रा (वह जीव-वध करता है)। वह जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव-वध में सहभागी होता है)। (इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से 1. प्राचा० टीका पत्रांक 126 / 1 2. प्राचा. टीका पत्रांक 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org