________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वे रुष्ट होकर (रक्त-मांस के लिए उनका शरीर) नोंचने लगते / यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा // 43 // 257. भगवान ने तेरह महीनों तक (दीक्षा के समय कंधे पर रखे) वस्त्र का त्याग नहीं किया / फिर अनगार और त्यागी भगवान महावीर उस वस्त्र का परित्याग करके अचेलक हो गए / / 44 / / .. . . ... विवेचन-दीक्षा से लेकर वस्त्र-परित्याग तक की चर्या—पिछले चार सूत्रों में भगवान महावीर की दीक्षा, कब, कैसे हुई ? वस्त्र के सम्बन्ध में क्या प्रतिज्ञा ली ? क्यों और कब तक उसे धारण करते रहे, कब छोड़ा ? उनके सुगन्धित तन पर सुगन्ध-लोलुप प्राणी कैसे उन्हें सताते थे ? आदि चर्या का वर्णन है। 'उहाए' का तात्पर्य पूर्वोक्त तीन प्रकार के उत्थानों में से मुनि-दीक्षा के लिए उद्यत होना है / वृत्तिकार इसकी व्याख्या करते हैं:--समस्त प्राभूषणों को छोड़कर, पंचमुष्टि लोच करके, इन्द्र द्वारा कन्धे पर डाले हुए एक देवदूष्य वस्त्र से युक्त, सामायिक की प्रतिज्ञा लिए हुए मनःपर्यायज्ञान को प्राप्त भगवान अष्टकर्मों का क्षय करने हेतु तीर्थ-प्रवर्तनार्थ दीक्षा के लिए उद्यत होकर...... / ' तत्काल विहार क्यों ?--भगवान दीक्षा लेते ही कुण्डग्राम (दीक्षास्थल) से दिन का एक मुहूर्त शेष था, तभी विहार करके कर्मारग्राम पहुँचे। इस तत्काल विहार के पीछे रहस्य यह था कि अपने पूर्व परिचित सगे-सम्बन्धियों के साथ साधक के अधिक रहने से अनुराग एव मोह जागत होने की अधिक सम्भावना है। मोह साधक को पतन की ओर ले जाता है / अतः भगवान ने भविष्य में आने वाले साधकों के अनुसरणार्थ स्वयं आचरण करके बता दिया। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है - 'अहुणा पम्वइए रोइत्या' / / भगवान का अनुधामिक आचरण---सामायिक की प्रतिज्ञा लेते ही इन्द्र ने उनके कन्ये पर देवदूष्य वस्त्र डाल दिया। भगवान ने भी नि:सांगता की दृष्टि से तथा दूसरे मुमुक्षु धर्मोपकरण के बिना संयमपालन नहीं कर सकेंगे, इस भावी अपेक्षा से मध्यस्थ ऋत्ति से उस वस्त्र को धारण कर लिया, उनके मन में उसके उपभोग की कोई इच्छा नहीं थी / इसीलिए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "मैं लज्जानिवारणार्थ या सर्दी से रक्षा के लिए वस्त्र से अपने शरीर को पाच्छादित नहीं करूंगा।" प्रश्न होता है कि जब वस्त्र का उन्हें कोई उपयोग ही नहीं करना था, तब उसे धारण ही क्यों किया ? इसके समाधान में कहा गया है-- एतं खु अणुधम्मियं तस्म', उनका यह आचरण अनुधार्मिक था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ यों किया है कि यह वस्त्र-वारण पूर्व तीर्थंकरों द्वारा प्राचरित धर्म का अनुसरण मात्र था / अथवा अपने पीछे पाने वाले साधु-साध्वियों के लिए अपने आचरण के अनुरूप मार्ग को स्पष्ट करने हेतु एक वस्त्र धारण किया / ' . 1. आचा० शीला दीका पत्रांक 3.1 / 2, अावश्यकचणि पूर्व भाग पृ. 268 / 3. प्राचारांग टीका (पू. आ. श्री आत्माराम जी महाराज कृत) पृ. 643 / 4. प्राचा० शीला० टोका पत्रांक 264 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org