________________ 'उवहाणसुयं' नवमं अज्झयणं पढमो उदेसओ उपधान-चत : नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक भगवान महावीर की विहारचर्या 254. अहासुतं वरिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय / संखाए तसि हेमंते अहुणा पब्वइए रोइत्था / / 4 / / 255. णो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते / से पारए आवकहाए एतं खु अणुम्मियं तस्स / / 42 / / 256. चत्तारि साहिए मासे बहवे पाणजाइया' आगम्म / अभिरुज्य कायं विहरिंसु आरुसियाणं तस्य हिसिसु / / 43 / / 257. संवच्छरं साहियं मासं जंण रिक्कासि वस्थगं भगवं। अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे / / 44 / / 254. (प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-जम्बू ! ) श्रमण भगवान ने दीक्षा लेकर जैसे विहारचर्या की, उस विषय में जैसा मैंने सुना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊँगा / भगवान ने दीक्षा का अवसर जानकर (घर से अभिनिष्क्रमण किया)। वे उस हेमन्त ऋतु में (मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को) प्रवजित हुए और तत्काल (क्षत्रियकुण्ड से ) विहार कर गए // 41 // 255. (दीक्षा के समय कंधे पर डाले हुए देवदूष्य वस्त्र को वे निलिप्त भाव से रखे हए थे, उसी को लेकर संकल्प किया--) "मैं हेमन्त ऋतु में इस वस्त्र से शरीर को नहीं ढगा।" वे इस प्रतिज्ञा का जीवनपर्यन्त पालन करने वाले और (अत:) संसार या परीषहों के पारगामी बन गए थे / यह उनकी अनुमिता ही थी। 256. (अभिनिष्क्रमण के समय भगवान के शरीर और वस्त्र पर लिप्त दिव्य सुगन्धितद्रव्य से आकर्षित होकर ) भौरे प्रादि बहुत-से प्राणिगण पाकर उनके शरीर पर चढ़ जाते अोर (रसपान के लिए) मँडराते रहते / (रस प्राप्त न होने पर) 1. 'पाणजाइया आगम्म' के बदले 'पाणजातीया आगम्म' एवं 'पागजाति आगम्म' पाठ मिलता है / चूर्णिकार ने इसका अर्थ यों किमा है-'भमरा मधुकराय पाणजातीया बहवो आगमिति....... पाणजातीधी प्रारुज्झ कार्य विहति / " अर्थात्-भौंरे या मधुमक्खियां आदि बहुत-से प्राणिसमूह आते थे, वे प्राणिसमूह उनके शरीर पर चढ़कर स्वच्छन्द विचरण करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org