________________ माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतकग्ध * इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं, चारों में भगवान के तपोनिष्ठ जीवन की झलक है। * प्रथम उद्देशक में भगवान की चर्या का, द्वितीय उद्देशक में उनकी शय्या (प्रासेवितस्थान और प्रासन) का, तृतीय उद्देशक में भगवान द्वारा-सहे गये परीषह-उपसगों का और चतुर्थ उद्देशक में क्षुधा आदि से आतंकित होने पर उनको चिकित्सा का वर्णन है।' * अध्ययन का उदेश्य-पूर्वोक्त आठ अध्ययनों में प्रतिपादित साध्वाचार विषयक साधना कोरी कल्पना ही नहीं है, इसके प्रत्येक अंग को भगवान ने अपने जीवन में प्राचरित किया था, ऐसा दृढ़ विश्वास प्रत्येक साधक के हृदय में जाग्रत हो और वह अपनी साधना निःशंक व निश्चलभाव के साथ संपन्न कर सके, यह प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है। * इस अध्ययन में सूत्र संख्या 254 से प्रारम्भ होकर 323 पर समाप्त होती है। इसी के साथ प्रथम श्रुतस्कंध भी पूर्ण हो जाता है। . MARon: 1. (क) प्राचारोग नियुक्ति गाँ० 379, 2. (क) प्राचारांम नियुक्ति ग० 279, (ख) पांचां शीला० टीका पत्रांक 296 / (ख) आचा० शीला० टीका पत्रांक 296 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org