________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ऊपर से दीवार लांघ कर या कांटे हटाकर प्रवेश करने से चोरी समझी जाती है। गृहपति को उस साधु के प्रति घृणा या द्वेष हो सकता है, वह साधु पर चोरी का आरोप लगा सकता है, अथवा द्वार खुला रह जान स कोई वस्तु नष्ट हो जाने से या किसी चीज की हानि हो जाने से साधु के प्रति शंका हो सकती है। अगर उस घर में जाना अनिवार्य हो तो उस घर के सदस्य की अनुमति लेकर, प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक प्रवेश-निर्गमन करना चाहिए / वृत्तिकार ने गाढ़ कारणों से प्रवेश करने की विधि बताई है-वैसे तो (उत्सर्ग मार्ग में) साधु को स्वतः बंद द्वार को खोलकर प्रवेश नहीं करना चाहिए; किन्तु यदि उस घर से ही रोगी, ग्लान एवं आचार्य आदि के योग्य पथ्य मिलना सम्भव हो, वैद्य भी वहाँ हो; दुर्लभ द्रव्य भी वहां से उपलभ्य हों, ऊनोदरी तप हो; इन और ऐसे कारणों के उपस्थित होने पर अवरुद्ध द्वार पर खड़े रहकर आवाज देनी चाहिए, तब भी कोई न आए तो स्वयं यथाविधि द्वार खोलकर प्रवेश करना चाहिए और भीतर जाकर घर वालों को सूचित कर देना चाहिए।' 'बप्पाणि' आदि शब्दों के अर्थ-वप्पाणिवप्र-ऊँचा भूभाग; ऐसा रास्ता जिसमें चढ़ाव ही चढ़ाव हैं / अथवा ग्राम के निकटवर्ती खेतों की क्यारी भी वप्र कहलाती है / फलिहाणि = परिखा-खाईयां, प्राकार / तोरणानिनगर का बहिद्वार--(फाटक) या घर के बाहर का द्वार, परक्कमे-जिस पर चला जाए; (पैर से कदम रखा जाए) उसे प्रक्रम-मार्ग कहते हैं। अणंतरहियाए जिसमें चेतना अन्तर्निहित हो-लुप्त न हो--अर्थात् जो सचेतन हो वह पृथ्वी, ससणिवाए-सस्निग्ध पृथ्वी, ससरक्खाए-सचित्त मिट्टी, कोलावासंसि वा दारुए-कोल-घुण; जिसमें कोल का आवास हो, ऐसी लकड़ी, जीवपतिढ़िते जीवों से अधिष्ठित-जीवयुक्त, आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा-एक बार साफ करे, बार-बार साफ करे, संलिहेज्ज वा णिल्लिहेज्ज वा= अच्छी तरह एक बार घिसे, बार-बार घिसे, उव्वलेज्ज वा उव्वटेज्ज वाउबटन आदि की भांति एक बार मले, बार-बार मले, आतावेज्ज वा पयावेज वा एक बार धूप में सुखाए, बार-बार धूप में सुखाए / गोणं वियालं = दुष्ट-मतवाला सांड, पडिपहे - ठीक सामने मार्ग पर स्थित, विगं- वृक-भेड़िया, दीवियं = चीता, अज्छ रीछ भालू, तरच्छं -- व्याघ्र विशेष, परिसरं = अष्टापद, कोलसुणयं--- महाशूकर, कोकंतियं =लोमड़ा, चित्ताचेल्लायं =एक जंगली जानवर, वियालं --सर्प, ओवाए - गड्ढा, खाणु =ढूंठ या खूटा, घसी=उतराई की भूमि, भिलुगा= फटी हुयी काली जमीन, विसमे-ऊबड़ खाबड़ जमीन, विज्जले-कीचड़, दलदल, दुवारबाहं - द्वार भाग, कंटग-बोंदियाए-कांटे की झाड़ी से, पडिपिहितं =अवरुद्ध या ढका हुआ या स्थगित, उग्गहं-- अवग्रह अनुमति = आज्ञा, अवंगुणेज्ज खोले, उद्घाटन करे, अणुण्णविय =अनुमति लेकर / 1. टीका पत्र 337-338 / 2. (क) टीका पत्र 337-638 / (ख) आचारांग चुणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 120 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org