________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। सब प्राणियों को प्रायुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते हैं / दुःख से घबराते हैं। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है, जीवन प्रिय है / वे जीवित रहना चाहते हैं। सब को जीवन प्रिय है। विवेचन—सूत्र 76 में समत्व-दर्शन की प्रेरणा देते हुए बताया है कि संसार में जितने भी दुःख हैं, वे सब स्वयं के प्रमाद के कारण ही होते हैं। प्रमादी-विषय आदि में आसक्त होकर परिग्रह का संग्रह करता है, उनमें ममत्व बन्धन जोड़ता है। उनमें रक्त अर्थात् अत्यन्त गृद्ध हो जाता है। ऐसा व्यक्ति प्रथम तो तप, (अनशनादि) दम (इन्द्रिय-निग्रह, प्रशम भाव) नियम (अहिंसादि व्रत) आदि का प्राचरण नहीं कर सकता, अगर लोक-प्रदर्शन के लिए करता भी है तो वह सिर्फ ऊपरी है, उसके तप-दम नियम निष्फल-फल रहित होते हैं।' सूत्र 78 में ध्र व शब्द-मोक्ष का वाचक है। आगमों में मोक्ष के लिए 'ध्र व स्थान' का प्रयोग कई जगह हा है। जैसे अस्थि एगं धुवं ठाणं-(उत्त० 23 गा०८१) ध्र व शब्द, मोक्ष के कारणभूत ज्ञानादि का भी बोधक है। कहीं-कहीं 'धुतचारी' पाठान्तर भी मिलता है। 'धुत' का अर्थ भी चारित्र व निर्मल अात्मा है। ___ 'चरे सकमणे' के स्थान पर शोलांकटीका में 'घरेऽसंकमणे' पाठ भी है / 'संकमणे' का अर्थसंक्रमण-मोक्षपथ का सेतु-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप किया है। उस सेतु पर चलने का आदेश है / 'चरेऽसंकमणे' में शंका रहित होकर परीषहों को जीतता हुअा गतिमान् रहने का भाव है। "पिआउया' के स्थान पर चूणि में पियायगा व टीका में "पियायया' पाठान्तर भी है। जिनका अर्थ है प्रिय आयत:-आत्मा, अर्थात् जिन्हें अपनी आत्मा प्रिय है, वे जगत् के सभी प्राणी। यहाँ प्रश्न उठ सकता है प्रस्तुत परिग्रह के प्रसंग में 'सब को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है' यह कहने का क्या प्रयोजन है ? यह तो अहिंसा का प्रतिपादन है। चिन्तन करने पर इसका समाधान यों प्रतीत होता है। 'परिग्रह का अर्थी स्वयं के सुख के लिए दूसरों के सुख-दुःख की परवाह नहीं करता, वह शोषक तथा उत्पीड़क भी बन जाता है / इसलिए परिग्रह के साथ हिंसा का अनुबंध है। यहाँ पर सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी यह बोध होना आवश्यक है कि जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। दूसरों के सुख को लूटकर स्वयं का सुख न चाहे, परिग्रह न करे इसी भावना को यहाँ उक्त पद स्पष्ट करते हैं। परिग्रह से दुःखवृद्धि 79. तं परिगिज्य दुपयं चउप्पयं अभिजुजियाणं संसिंचियाणं तिविधेण जा वि से तत्थ मता भवति अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिते चिट्ठति भोयणाए। 1. प्राचारांग ठीका पत्र-१०९ 2. वही टीका पत्र 110 3. वही पत्र 110 4. पियो अप्पा जेसि से पियायगा-चणि (प्राचा० जम्बू० टिप्पण पृष्ठ 22) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org